Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 420
________________ [ मूमानारे प्रकृतिस्वरूपेण स्थानमनन्तानुबन्धिनामुपशमः पुनरधःप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिकरणानि कृत्वा अनिवृत्तिकरणकालस्य संख्येयेषु भागेषु गतेषु दर्शनमोहत्रिकस्योदयाभाव उपशमस्तेषामुपशान्तानामप्युत्कर्षापकर्षपरप्रकृतिसंक्रमणानामस्तित्वं यत इति । अपूर्वकरणे नैकमपि कर्मोपशाम्यति । किन्त्वपूर्वकरण: प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्ध्या वर्धमानः अन्तर्मुहुर्तेनैककस्थितिखण्डकं पातयन् संख्यातशतसहस्राणि स्थितिखण्डकानि पातयति, तावन्मात्राणि च स्थितिबन्धापसरणानि करोति । एककस्थितिखण्डाभ्यन्तरे संख्यातसहस्राण्यनुभागखण्डकानि पातयति प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या प्रदेशनिर्जरां करोति । अप्रशस्तकाशान्न बध्नाति । तेषां प्रदेशाग्रमसंख्यातगुणश्रेण्या अन्यासु प्रकृतिषु बध्यमानस्ततस्तदुपरि(?)संक्रामयति । पुनरपूर्वकरणमतिक्रम्यानिवृत्तिकरणं प्रविश्यान्तर्मुहूर्तमात्रमनेन विधानेन स्थित्वा द्वादशानां कषायाणां नवानां नोकषायाणामन्तरमन्तर्मुहूर्तेन करोति । अन्तरे कृते प्रथससमयादुपरि अन्तर्मुहूत्तं गत्वा असंख्येयगुणश्रेण्या नपुसंकवेदमुपशमयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन तेनैव विधिना षण्णा कषायाणां पुरुषवेदं चिरन्तनसत्कर्मणा सह युगपदुपशमयति । तत ऊध्वं समयोने द्वे आवल्यो गत्वा पुंवेद मुबन्धी चतुष्क स्थितिसत्कर्म उपशम को करता है । अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य प्रकृति रूप से स्थित हो जाना अनन्तानुबन्धी का उपशम है । पुनः वही जीव अध:करण और अपूर्वकरण परिणाम को करके अनिवत्तिकरण में संख्यात भाग बीत जाने पर दर्शनमोह की तीन प्र का उदयाभावरूप उपशमता है अर्थात् उपशम को प्राप्त होने पर भी इनका उत्कर्ष, अपकर्ष और परप्रकृतिरूप संक्रमण का अस्तित्व होता है। यह उपशम का विधान हुआ । अर्थात् चौथे, पाँचवें, छठे या सातवें गुणस्थान में से किसी में इन तीन-तोन करणरूप परिणामों द्वारा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके अधःप्रवृत्तिकरण नामवाले सातवें गुणस्थान का अन्तम हर्त काल बिताकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में आ जाता है। ___ अपूर्वकरण में एक भी कम का उपशम नहीं होता है किन्तु इस अपूर्वकरण परिणामवाला जीव प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से परिणामों की शुद्धि को वृद्धिंगत करता रहता है। बत: अन्तर्मुहुर्त से एक-एक स्थितिखण्ड का घात करता हुआ संख्यात लाख स्थितिखण्डों का घात कर देता है और उतने प्रमाण ही स्थिति-बन्धापसरण भी करता है । इन एक-एक स्थितिबन्धापसरणों के मध्य संख्यात हज़ार अनुभागखण्डकों का घात होता है और प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मपरमाणुओं की निर्जरा होती है। वह जीव अप्रशस्त कर्माशों को नहीं बाँधता है बल्कि उनके प्रदेशाग्रों को असंख्यातगुण श्रेणीरूप से बद्धमान अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करा देता है। पुन: अपूर्वकरण का काल बिताकर, अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करके, अन्तर्मुहर्त मात्र सक इसी विधि से स्थित होकर बारह कषाय और नौ नोकषायों का अन्तर करता है। इसमें अन्तर्मुहूर्त लगता है । अन्तर करने के बाद, पहले समय से ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणश्रेणी द्वारा नपुंसक वेद का उपशम करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहुर्त काल से नपुंसकवेदोपशम विधि से ही स्त्रीवेद का उपशम करता है। अन्तर उसी विधि के अनुसार छह नोकषायों का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ रह रहे पुंवेद का भो युगपत् उपशम कर देता है। इसमें भी मन्तमुहूर्त काल लगता है । तदनन्तर एक समय कम दो आवली के बीत जाने पर पुरुषवेद के नवक १.स्वामुनीते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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