Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ पर्यापयधिकार] [३८१ मानमायालोभतीव्रतादिपरिणामभावतः शुभः सुखद: अशुभ: असुखदः वा विकल्पार्थः सोऽनुभागबन्धः । यथा अजागोमहिष्यादीनां क्षीराणां तीवमन्दादिभावेन रसविशेषस्तथा कर्मपुद्गलानां तीव्रादिभावेन स्वगतसामर्थ्यविशेषः शुभोऽशुभो वा य: सोऽनुभागबन्धः । शुभपरिणामाना प्रकर्षभावाच्छुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवोऽशुभप्रकृतीनां निकृष्टः, अशुभपरिणामानां प्रकृष्टभावादशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभव: शुभप्रकृतीनां निकृष्टः । स एवं 'प्रकृतिवशादुत्पन्नो रसविशेषः द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन चैवं सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः तुल्यजातीनां परमुखे नापि आयुर्दर्शनचारित्रमोहवानां, न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुमनुष्यायुर्वा । विपच्यते नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमखेनेति । तया देशघातिसर्वघातिभेदेनानुभागो द्विविधः, देशं घातयतीति देशघाती, सर्व घातयतीति सर्वघाती। केवलज्ञानावरण-केवलदर्शनावरणनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिप्रचलानिद्राः चतुःसंज्वलनवा द्वादश कषाया मिथ्यात्वादीनां विंशतिप्रकृतीनामनुभागः सर्वमाती ज्ञानादिगुणं सर्व घातयतीति वनदाह इव। मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमन:पर्ययशानावरणपंचान्तरायसंज्वलनक्रोधमानमायालोभनवनोकषायाणामुत्कृष्टानुभागबन्धः सर्वघाती वा जघन्यो देश उत्पन्न होनेवाला सुखदायक और दुःखदायक अनुभव अनुभागबन्ध कहलाता है। जैसे बकरी, गाय, भैस आदि के दूध में तीव्र, मन्द भाव से रस-माधुर्य विशेष होता है वैसे ही कर्म पूदगलों में तीव्र आदि भाव से जो शुभ अथवा अशुभ अपने में होनेवालो सामर्थ्य विशेष है वह अनभाग बन्ध है। ___ शुभ परिणामों की प्रकर्षता से शुभप्रकृतियों में प्रकृष्ट अनुभाग पड़ता है और अशभ प्रकृतियों में निकृष्ट--जघन्य अनुभाग पड़ता है। अशुभ परिणामों की प्रकर्षता से अशभ प्रकतियों में प्रकृष्ट अनुभाग और शुभ प्रकृतियों में जघन्य अनुभाग होता है। इस प्रकार से प्रकृति विशेष से उत्पन्न हुआ यह रस विशेष दो प्रकार का हो जाता है-स्वमुख से और परमुख से । सम्पूर्ण मूल प्रकृतियों का अनुभव स्वमुख से ही होता है और उत्तर प्रकृतियों में तुल्यजातीय प्रकृतियों का अनुभव परमुख से भी होता है। किन्तु समस्त आयु, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय का आपस में परमुख से उदय नहीं होता है। अर्थात् नरकायु मुख से तिर्यंचायु अथवा मनुष्यायु रूप फल नहीं दे सकती है । वैसे ही दर्शनमोह चारित्रमोहरूप से अथवा चारित्रमोह दर्शनमोहरूप से अपना फल नहीं दे सकता है । देशघाती और सर्वघाती के भेद से अनभाग के दो भेद हैं। जो देश-आत्मा के अल्पगुणों- का घात करता है वह देशघाती है और जों सर्वसकल गुणों का घात करता है वह सर्वघाती है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, प्रचला, निद्रा, चार संज्वलन को छोड़कर बारह कषाय और मिथ्यात्व इन बीस प्रकृतियों का अनुभाग सर्वघाती है। अर्थात् वह सर्वज्ञानादिगुणों का घात करता है, वन की दावानल के समान । मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ और नौ नोकषाय, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और सम्यक्त्व प्रकृति-इन छब्बीस का उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती है और जघन्य अनुभाग देशघाती है । १.क प्रत्यय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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