Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ पर्याप्स्यधिकारः] पुद्गलमर्यादावबोधः। परकीयमनोगतार्थ मन इत्युच्यत तत्परि समन्तादयत इति मनःपर्ययः। त्रिकालगोचरानन्तपर्यायाणाम् अवबोध: केवलं सर्वथा शुद्धः । ज्ञानशब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते । आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानं, अवधिज्ञानं,मनःपर्ययज्ञानं चेति । आवरणशब्दोऽपि प्रत्येकमभिसंबध्यते; आभिनिबोधिज्ञानावरणं,श्रुतज्ञानावरणं, अवधिज्ञानावरणं, मनःपर्ययज्ञानावरणं, केवलज्ञानावरणं चेति । एतेषां सर्वभेदानामावरणं ज्ञातव्यम् । बाभिनिबोधिकं ज्ञानमवग्रहेहावायधारणाभेदेन चतुर्विधम, विषयविषयिसन्निपातानन्तरम'वग्रहणमवग्रहः । सोऽप्यर्थव्यंजनावग्रहभेदेन द्विविधः । अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहोयथा चक्षुरिन्द्रियेण रूपग्रहणं, प्राप्तार्थग्रहणं । व्यंजनावग्रहो यथा स्पर्शनेन्द्रियेण स्पर्शग्रहणम् । अवगृहीतस्यार्थस्य विशेषाकांक्षणमीहा, योऽवग्रहेण गृहीतोऽर्थस्तस्य विशेषाकांक्षणं भवितव्यता 'प्रत्ययं । यथा कंचिद् दृष्ट्वा किमेषो भव्य, उत अभव्यः, भव्येन भवितव्यमिति विशेषाकाक्षणमीहा । ईहितस्यार्थस्य भवितव्यतारूपस्य संदेहापोहनमवायः । भव्यएवायं नाभव्यः भव्यत्वाविनाभाविसम्यग् का ज्ञान होना । अर्थात् घट शब्द सुना यह मतिज्ञान है, पुनः घट के अर्थ को समझा यह श्रुतज्ञान है। धओं देखकर अग्नि को जाना यह भी श्रतज्ञान है। अवधान से जानना अवधिज्ञान है यह मर्यादा से युक्त पुद्गल पदार्थ के ज्ञानरूप है। दूसरे के मन में स्थित पदार्थ मन कहलाता है। उसको चारों तरफ से जो 'अयते' जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों को जानना केवलज्ञान है। यह ज्ञान सर्वथा शुद्ध है। ज्ञान शब्द प्रत्येक के साथ लगाने से आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान होते हैं। आवरण शब्द भी प्रत्येक के साथ लगाने से आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण के भेद हो जाते हैं। अभिनिबोधिकज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का है। विषय- पदार्थ और विषयी-इन्द्रिय के सम्बन्ध होने के अनन्तर जो अवग्रहण - ज्ञान होता है वह अवग्रह है इसके भी अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करना अर्थावग्रह है। जैसे चक्षु इन्द्रिय से रूप को ग्रहण करना, अर्थात् चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । तथा प्राप्त अर्थ को ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है। जैसे स्पर्शन इन्द्रिय से स्पर्श का ग्रहण करना। यहाँ स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श का जो ज्ञान होता है वह वस्तु से सम्बन्ध होने पर होता है, बिना स्पर्श के स्पर्शज्ञान, रसज्ञान, गन्धज्ञान और शब्दज्ञान नहीं होता है। गृहीत पदार्थ के विशेष की आकांक्षा हाना ईहा है, अर्थात् अवग्रह ने जिस पदार्थ को ग्रहण किया है उसके विशेष धर्म को जानने का इच्छा का होना ईहा है-यह भवितव्यता प्रत्यय सम्भवात्मक ज्ञान रूप है। जैसे किसी को देखकर यह भव्य है अथवा अभव्य है, ऐसी जिज्ञासा होने पर यह भव्य होगा ऐसा जो भवितव्यतारूप ज्ञान है वह विशेषाकांक्षारूप है। इसी का नाम ईहा है। ईहा से जाने गये पदार्थ में जो कि भवितव्यतारूप है, उसमें सन्देह का दूर हो जाना १. क माद्यग्रहण- २. क प्रत्ययः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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