Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 391
________________ पर्यापयधिकारः] यस्योदयेनाप्तागमपदार्थेषु श्रद्धा न भवति तन्मिथ्यात्वं, कोद्रवतुषरूपम् । यस्योदयेनाप्तागमपदार्थेषु श्रद्धायाः शैथिल्यं तत्सम्यक्त्वं, कोद्रवतन्दुलसदृशम् । स्योदयेनाप्तानाप्तागमपदार्थेष अक्रमेण श्रद्धे उत्पद्यते तत्सम्यहमिथ्यात्वं, दर्शनमोहनीयस्य अपूर्वा पूर्वादिकरणैर्दलितस्य कोद्रवस्येव त्रिधा गतिर्भवति । तच्च बन्धं प्रत्येक सत्ताकर्म प्रति त्रिविधं तत्सम्यमिथ्यात्वस्यैककारणत्वादिति ॥१२३३।। षोडशकषायभेदं प्रतिपादयन्नाह कोहो माणो माया लोहोणताणुबंधिसण्णाय। अप्पच्चक्खाण तहा पच्चक्खाणो य संजलणो॥१२३४॥ क्रोधो रोषसंरम्भः, मानो गर्वः स्तब्धत्वं,माया निकृतिवंचना, अनजुत्वं लोभो 'गहमूर्छा। अनन्ता'नुभवान्मिथ्यात्वासयमादौ अनुबन्धः शीलं येषां तेऽनन्तानुबन्धिनस्ते च ते क्रोधमानमायालोमा अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाः । अथ वाऽनन्तेषु भवेष्वनुबन्धो विद्यते येषां तेऽनन्तानुबन्धिनः संसारापेक्षयानन्तकालत्वम एते सम्यक्त्वचारित्रविरोधिनः शक्तिद्वयापनोदायेति, अथ वाऽनन्तानुबन्धिन इति संज्ञा भवन्ति एत इति । प्रत्याख्यान संयमः । ईषत्प्रत्याख्यानं अप्रत्याख्यानम् संयमासंयम इत्यर्थः, अत्रावरणशब्दो द्रष्टव्यः। अप्रत्याख्यान जिसके उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में श्रद्धा नहीं होती है वह मिथ्यात्व है। यह कोदों के तुष की तरह है । जिसके उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में श्रद्धा की शिथिलता रहती है वह सम्यक्त्व नामक प्रकृति है । यह कादा के चावल के सदृश है। जिसके उदय से आगम, पदार्थ और अनाप्त, अनागम, अपदार्थ इन सच्चे और झूठे दोनों प्रकार के आप्त, आगम पदार्थों में एक साथ श्रद्धा उत्पन्न होती है उसका नाम सम्यङ मिथ्यात्व है। इस तरह दर्शन मोहनीय की अधःकरण, अपूर्वकरण आदि परिणामों के द्वारा यन्त्र से दले हुए कोदों के समान तीन अवस्थाएं हो जाती हैं। वह दर्शनमोहनीय बन्ध के प्रति एक है और सत्ता कर्म के प्रति तीन प्रकार का है, इसलिए ये मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यङ मिथ्यात्व एक कारण से ही होते हैं। सोलह कषायभेदों का कथन करते हैं गाथार्थ-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन रूप होने से सोलह हो जाते हैं ॥१२३४।। आचारवत्ति-क्रोध-रोष का संरम्भ, मान---गर्व-स्तब्धता, माया-निकृति, वंचना अर्थात् सरलता का न होना, लोभ-गृहमूर्छा, ये चार कषायें हैं। अनन्तभवपर्यन्त रहने से तथा मिथ्यात्व, असंयम आदि में अनुबन्ध-अविनाभावी स्वभाववाली होने से इनका अनन्तानबन्धी नाम सार्थक है । अथवा अनन्तभवों से जिनका अनुबन्ध-सम्बन्ध है वे अनन्तानबन्धी हैं। इनके चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ। ये संसार की अपेक्षा से अनन्तकालपर्यन्त रहती हैं, सम्यक्त्व और चारित्र दोनों की विरोधिनी हैं अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र को घात ... करने की शक्ति से युक्त हैं। प्रत्याख्यान-संयम और ईषत्प्रत्याख्यान-संयमासंयम, इन दोनों के साथ आवरण शब्द लगाना चाहिए। १. क गृद्धिमूर्छा । २. क अनन्तान्भवान्। ३. शक्तिद्वेयोपेता यतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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