Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 395
________________ पर्याप्त्यधिकारः ] [ ३६१ भवन्ति । नरकादिगतिषु तदव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतात्मा जातिर्जीवानां सदृशः परिणामः । यदि जातिनामकर्म न स्यात्तदा मत्कुणा मत्कुणैवृश्चिका वृश्चिकर्त्रीहयो व्रीहिभिः समाना न जायेरन् दृश्यते च सादृश्यं तस्माद्यतः कर्मस्कन्धा जातिसादृश्यं तस्य जातिरिति संज्ञा । सा च पंचविधा, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियजातिभेदेन । यदुदयादात्मा एकेन्द्रियः स्यात्तदेकेन्द्रियजातिनामकर्म । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । यदुदयादात्मनः शरीरनिवृतिस्तच्छरीरनाम, यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेनाहारतेजः कार्माणव गंणापुद्गल स्कन्धाः शरीरयोग्य परिणामः परिणता जीवेन संबध्यन्ते तस्य शरीरमिति संज्ञा । यदि शरीरनामकर्म न स्यादात्मा विमुक्तः स्यात् । तच्छरीरं पंचविधं, औदारिकवैक्रियिकाहा र कतै ज स कार्मणशरीरभेदेन । यदुदयादाहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धा जीवगृहीता रसरुधिरमांसास्थिमज्जाशुक्रस्वभावोदारिकशरीरं भवन्ति तदौदारिकशरीरनाम । एवं सर्वत्र । यदुदयादाहारवर्गणापुद्गलस्कन्धाः सर्वशुभावयवाहारशरीरस्वरूपेण परिणमन्ति तदाहारकशरीरं नामकर्म । तथा यदुदयात्तै जसवर्गणानुद्गलस्कन्धा निःसरणानिःसरण प्रकामप्राप्तसमस्त प्रत्येकशरीरस्वरूपेण भवन्ति तत्तैजसशरीरं नाम । तथा यदुदयाहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धा अणिमादिगुणोपलक्षितास्तद्वैक्रियिकं शरीरम् । यदुदयात्कूष्मांड फल वृन्तवत्सर्वकर्माश्रयभूतं तत्कार्मणशरीरम् । शरीरार्थागतपुद्गलस्कन्धानां उदय से आत्मा को नरक, तियंच, मनुष्य और देव भव प्राप्त होते हैं उनसे युक्त जीवों को उनउन गतियों में नरकगति, तिर्यंचगति आदि संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं । (२) उन गतियों में अव्यभिचारी सादृश से एकीभूत स्वभाव को जाति कहते हैं, अर्थात् जोवा के सदृश परिणाम का नाम जाति है । यदि जाति नामकर्म न हो तो खटमल खटमल के समान, बिच्छू बिच्छू के समान और ब्रीहितन्दुल ब्रीहितन्दुल के समान नहीं हो सकते, जबकि इनमें सदृशता दिख रही है, इसलिए जिन कर्मस्कन्धों से सदृशता प्राप्त होती है उनकी संज्ञा जाति है । उस जाति के पाँच भेद हैं- एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय | जिसके उदय से आत्मा एकेन्द्रिय होता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है । इसी प्रकार सब में घटितकर लेना चाहिए । (३) जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना होती है वह शरीरनामकर्म है, अर्थात् जिस कर्मस्कन्ध के उदय से आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा और कार्मणवर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध शरीर के योग्य परिणाम से परिणत होकर जीव के साथ सम्बन्धित होते हैं उसकी शरीर संज्ञा है । यदि शरीर नामकर्म न हो तो आत्मा मुक्त हो जावे । इस शरीर के पाँच भेद हैंदारिक, वैयिक, आहारक, तैजस और कार्मण। जिसके उदय से जीव के द्वारा ग्रहण किये गये आहारवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध रस, रुधिर, मांस, अस्थि मज्जा और शुक्र स्वभाव से परिणत होकर औदारिक शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिक शरीर है। ऐसे ही जिनके उदय से जीव द्वारा ग्रहण किये आहारवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध अणिमा आदि गुणों से उपलक्षित वैऋियिक शरीररूप परिणत हो जाते हैं उसका नाम वेक्रियिकशरीर है । जिसके उदय से आहार वर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध सभी शुभ अवयववाले आहारकशरीररूप से परिणमन कर जाते हैं उसका नाम आहारकशरीर है। जिसके उदय से तैजसवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध निःसरण और अनिःसरणरूप प्रत्येक ढंग से परिणत हो जाते हैं उसका तैजसशरीर नाम है, अर्थात् तैजसशरीर के दो भेद हैं-निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक । निःसरणात्मक के भी शुभ और अशुभ की की अपेक्षा दो भेद हैं। ये औदारिक शरीरवाले तेजस ऋद्धिधारी मुनियों के निकलते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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