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[ मूलाचारे
यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन नरकगति गतस्य जीवस्य विग्रहगता वतमानस्य नरकगतिप्रायोग्यसंस्थानं भवति तन्नरकगतिप्रायोग्यानपूयं नामवं शेषाणामप्यर्थो वाच्य इति । यस्य कर्मस्कन्धस्योदयाजीवोऽनन्तानन्तपुद्गलपूर्णोऽय:पिण्डवद्गुरुत्वान्नाधः पतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूचं गच्छति तदगुरुलघुनाम । उपेत्य घात उपधात: यस्योदयात् .वयंकृतोदबन्धनमरुत्पतनादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपधातनाम, अथ वा यत्कर्म जीवस्य स्वपीडाहेतूनवयवान्महाश्गलाध्वस्तानुदरादीन् करोति तदुपघातम् । परेषां घातः परघातः, यस्य कर्मण उदयात्परघातहेतवः शरीरपुद्गलाः सर्पदंष्ट्रावृश्चिकपुच्छादिभवाः परशस्त्राद्याधाता वा भवन्ति तत्परघातनाम । उन्श्वसनमुच्छ्वासः, यस्य कर्मण उदयेन जीव उच्छ्वासनिःश्वासकार्योत्पादनसमर्थः स्यात्तदुच्छ्वासनिःश्वासनाम । अयं नामशब्दः सर्वत्राभिसंबध्यत इति ॥१२३७॥
तथा
आतपनमातपः, यस्य कर्मस्काधस्योदयेन जीवशरीर आसपो भवति तदातापनाम, न च तस्याभावः सूर्यमण्डमादिषुपृथिवीकायिकादिषु चातापोपलम्भात्। उद्योतनमुद्योतः यस्य कर्मस्कन्धस्योदयान्जीवशरीर उद्योत उत्परते तदुद्योतनाम, न चास्याभावः चन्द्रनक्षत्रादिमण्डलेषु खद्योतादिषु च पृथिवीकायिकशरीराणामुद्योत
मनुष्यगतिप्रायोग्यानुर्व्य और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य । जिस कर्मस्कन्ध के उदय से नरक गति में जाता हुआ जीव जब विग्रहगति में रहता है उस समय नरक गति के योग्य आकार होता है। अर्थात् नरक गति में पहुंचने तक छोड़ी हुई पूर्व गति के आकार को बनाये रखना इस आनुपूर्व्य का काम है । ऐसे ही शेष आनुपूर्यों में समझना चाहिए।
(१४) जिस कर्मस्कन्ध के उदय से यह जीव अनन्तानन्त पुद्गलों से पूर्ण होकर भी लोहपिण्ड के समान गरु होकर न तो नीचे ही गिर जाता है और न रुई के समान हल्का होकर ऊपर ही चला जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है।
(१५) पास आकर घात होना उपघात है। जिस कर्म के उदय से अपने द्वारा ही किये गये गलपाश आदि बन्धन और पर्वत से गिरना आदि निमित्तों से अपना घात हो जाता है वह उपघात नाम कर्म है। अथवा जो कर्म जीव के अपने ही पीड़ा में कारणभूत बड़े-बड़े सींग, उदर आदि अवयवों को रचता है वह उपधात है।
(१६) परजीवों का घात परघात है । जिस कर्म के उदय से पर के घात के लिए कारण साँप की दाढ़ और बिच्छू की पूंछ आदि रूप से उत्पन्न हुए शरीर के पुद्गल होते हैं । अथवा पर शस्त्र आदि के द्वारा जो आघात होता है वह परघात नामकर्म है।
(१७) उच्छ्वसित होना उच्छ्वास है। जिस कर्म के उदय से जीव उच्छवास और निःश्वास कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है वह उच्छवास-निःश्वास नामकर्म है।
(१८) सब तरफ से तपना आतप है । जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव का शरीर आतप रूप होता है अर्थात् उसमें अन्य को संतप्त करनेवाला प्रकाश उत्पन्न होता है वह आतप नामकर्म है । इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि सूर्य के विमान आदिकों में होने वाले पृथिवीकायिकों में ऐसा तापकारी प्रकाश दिखता है।
(१९) उद्योतित होना-चमकना उद्योत है। जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में उद्योत-ठण्डा प्रकाश उत्पन्न होता है वह उद्योत नामकर्म है । इसका भी अभाव नहीं कह सकते क्योंकि चन्द्रमा और मक्षत्रों के विमानों में होनेवाले पृथिवीकायिक जीवों के शरीरों
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