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पर्याप्स्यधिकार]
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स्याज्जीवशरीरे जातिप्रतिनियततिक्तादिरसो भवति तद्रस इति संज्ञा, एतस्य कर्मणोऽभावे जातिप्रतिनियतरसो न भवेत न चैवं निम्बादीनां प्रतिनियत रसोपलंभात् । तत्पंचविधं तिक्तनाम, कटुकनाम, कषायनाम, अम्लाम, मधुरनाम चेति । यस्य कर्मण उदयेन शरीरपुद्गलास्तिक्तरसस्वरूपेण परिणमन्ति तत्तिक्तनामवं, शेषाणामप्यर्थो वाच्य इति ।यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवशरीरे जातिप्रतिनियतो गन्ध उत्पद्यते तस्य गन्ध इति। संज्ञा, न च तस्याभावो हस्त्यजादिषु प्रतिनियतगन्धोपलम्भात् । तद् द्विविधं सुरभिगन्धनामासुरभिगन्धनाम चेति । यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीरपुद्गलाः सुरभिगन्धयुक्ता भवन्ति तत्सुरभिगन्धनाम, यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीरपुद्गला दुर्गन्धा भवन्ति तदुर्गन्धनामेति । यस्य कर्मस्कंधस्योदयेन जीवशरीरे जातिप्रतिनियतः स्पर्श उत्पद्यते तत्स्पर्शनाम, न चैतस्याभावः सर्वोत्पलकमलादिषु प्रतिनियतस्पर्शदर्शनात्, तदष्टविधं कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघनाम, स्निग्धनाम, रूक्षनाम, शीतनाम, उष्णनाम चेति । यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन शरीरपुद्गलानां कर्कशभावो भवति तत्कर्कशनामैवं शेषस्पर्शानामप्यर्थो वाच्यः । पूर्वोत्तरशरीरयोरन्तराले एकद्वित्रिसमयेष वर्तमानस्य यस्य कर्मस्कन्धस्योदयेन जीवप्रदेशानां विशिष्टः संस्थानविशेषो भवति तदानुपूयं नाम, न च तस्याभावो विग्रहगतौ जातिप्रतिनियतसंस्थानोपलम्भाद् उत्तरशरीरग्रहणं प्रति गमनोपलम्भात् । तच्चतुर्विधं नरकगतिप्रायोग्यानुपूव्यं, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूव्यं, देवगतिप्रायोग्यानुपूयं चेति ।
(१०) जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में जाति के अनुसार तिक्त आदि रस उत्पन्न होते हैं उसको रस नामकर्म कहते हैं। इस कर्म के अभाव में जाति के अनुरूप निश्चित रस नहीं हो सकेगा। किन्तु नीम आदि में प्रतिनियत रस पाया जाता है । इस रस के भी पाँच भेद हैं-तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर। जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गल परमाणु तिक्तरस स्वरूप परिणत हो जावें वह तिक्त रस नामकर्म है । इसी तरह शेष रसों का भी अर्थ कर लेना चाहिए।
(११) जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में जाति के अनुसार गन्ध उत्पन्न होती है उसकी संज्ञा गन्ध है । इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि हाथी, बकरी आदि के शरीर में उस जाति के अनुरूप गन्ध पायी जाती है । इसके दो भेद हैं-सुरभिगन्ध और असुरभि गन्ध । जिस कर्मस्कन्ध के उदय से शरीर के पुद्गल परमाणु सुरभिगन्ध से युक्त हों वह सुरभिगन्ध नामकर्म है और जिस कर्मस्कन्ध के उदय से शरीर के पुद्गल दुर्गन्धित हो जाएँ वह असुरभिनामकर्म है।
(१२) जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में जाति के अनुरूप स्पर्श उत्पन्न होता है वह स्पर्श नामकर्म है। इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता है क्योंकि सभी उत्पल, कमल आदि में प्रतिनियत स्पर्श देखा जाता है। इसके आठ भेद हैं-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण। जिस कर्मस्कन्ध के उदय से शरीर के पुद्गल कठोर होते हैं वह कर्कश नामकर्म है । इसी प्रकार से शेष स्पर्शों का भी अर्थ कर लेना चाहिए।
(१३) पूर्व और उत्तर शरीर के अन्तराल में एक, दो अथवा तीन समय तक होनेवाला जो जीव के प्रदेशों का आकार विशेष जिस कर्मस्कन्ध के उदय से होता है उसका नाम आनुपूर्वी है। इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता है क्योंकि विग्रहगति में उस अवस्था के लिए निश्चित आकार उपलब्ध होता है, और उत्तम शरीर ग्रहण करने के प्रति गमन की उपलब्धि भी पायी जाती है। इसके चार भेद हैं-नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य,
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