Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 405
________________ पर्याप्यधिकारः ] [ ३७१ गोत्र शब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, उच्चैर्गोत्रं, नीचैगोत्र, द्विविधम् । यदुदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्, यदुदयाद्गहितेषु कुलेषु जन्म तन्नी चैर्गोत्रम् । अन्तरायशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते काकाक्षिवच्चोभयत्रानुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् । तस्यान्तरायो दातृदेवादीनामन्तरायो दानान्तरायः लाभः समीप्सितवस्तु तस्यान्तरायो लाभान्तरायः सकृद् भुज्यते भोगस्तस्यान्तरायो भोगान्तरायः, पुनर्भुज्यते परिभोगस्तस्यान्तरायः परिभोगान्तरायः, वीर्यशक्तिरुत्साहस्तस्यान्तरायो वीर्यान्तरायः । दानादिपरिणामव्याघात हेतुत्वात् तद्व्यपदेशः । यदुदयाद्दातुकामोऽपि न ददाति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुंक्ते, उपभोक्तुमभिवांछन्नपि न परिभुंक्ते, उत्साहितुकामोऽपि नोत्सहते, इत्येवमन्तरायः पंचविधो भवति उत्तरप्रकृतिभेदेन । ॥१२४०॥ एवमुत्तरप्रकृतिभेदोष्टचत्वारिंशच्छतं भवति । श्राचारवृत्ति - गोत्र शब्द दोनों में लगाना अर्थात् गोत्र के उच्चगोत्र और नीचगोत्र ऐसे दो भेद हैं । जिसके उदय से लोकपूजित कुलों में जन्म हो वह उच्चगोत्र है । जिसके उदय से गर्हित- निन्द्य कुलों में जन्म हो वह नीचगोत्र है । अन्तराय शब्द भी प्रत्येक के साथ लगा लेना चाहिए। स्वपर के अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है । उसका अन्तराय अर्थात् दाता और देय आदि के मध्य विघ्न का होना दानान्तरायकर्म है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति लाभ है। उसका अन्तराय होना लाभान्तराय है । जो एक बार ही भोगी जा सकती है वह वस्तु भोग कहलाती है । उसमें विघ्न आ जाना भोगान्तराय है । जो वस्तु पुनः पुनः भोगी जा सकती है वह परिभोग है । उसकी प्राप्ति में विघ्न आ जाना परिभोगान्तराय है । शक्ति या उत्साह का नाम वीर्य है । उसमें विघ्न आ पड़ना वीर्यान्तराय है । ये दानादि परिणाम में विघ्न के हेतु हैं, इनका वैसा ही नाम है । अर्थात् जिनके उदय से देने की इच्छा होते हुए भी नहीं दे पाता है, प्राप्त करने की इच्छा होते हुए भी नहीं प्राप्त कर पाता है, भोगने की इच्छा होते हुए भी नहीं भोग पाता है, उपभोग करने की इच्छा रखते हुए भी उपभोग नहीं कर पाता है और उत्साह की इच्छा रखते हुए भी उत्साहित नहीं हो पाता है ऐसे पाँचों अन्तरायों के उदय से ही ऐसा होता है। इस तरह उत्तर प्रकृतियों के भेद से अन्तराय पाँच प्रकार का होता है । इस प्रकार सर्वभेद मिलाकर उत्तरप्रकृतियों के एक सौ अड़तालीस भेद हो जाते हैं । भावार्थ-ज्ञानावरण के ५ दर्शनावरण के ६, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु ४, नाम के ३, गोत्र के २, और अन्तराय के ५ ऐसे १४८ भेद उत्तरप्रकृतियों के होते हैं । दाणतरायलाही भोगुवभोगं च वीरियं चैव । एवं खु पडिबद्ध बसहियसयं वियाणाहि ॥ अर्थ – दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पांच अन्तराय के भेद हैं। इस प्रकार से प्रकृतिबन्ध के एक सौ बीस भेदों को जानो । अर्थात् सर्व अपिण्डप्रकृतियाँ १४८ हैं । उनमें से बन्ध के योग्य १२० हैं, ऐसा जानो । १. क न प्रयच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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