Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 398
________________ ३६४ ] [ मूलाचारे वज्रनाराचो तो द्वावपि यस्मिन् शरीरसंहनने तद्वज्रर्षभनाराचसंहननं यस्य कर्मण उदयेन 'वज्रास्थीनि वज्रवेष्टनेन वेष्टितानि वज्रनाराचेन च कीलितानि भवन्ति । एष एवास्थिबन्धो ॠषभरहितो यस्योदयेन भवति तद् द्वितीयम् । यस्य कर्मण उदयेन वज्रविशेषणरहितोऽस्थिबन्धो नाराचकीलितो भवति तत्तृतीयम् । यस्य कर्मण उदयेनास्थिसंचयो नाराचेनार्द्धकीलितो तच्चतुर्थम् । यस्य कर्मण उदयेन वज्रास्थीनि वज्रवेष्टनेन वेष्टितानि वज्रनाराचेनैव कीलितानि न भवन्ति तत्पंचमम् । यस्य कर्मण उदयेनान्योन्यासंप्राप्तानि सृपाटिका : शिराबद्धानि भवन्ति तत् षष्ठमिति । यदुदयादंगोपांगविवेकनिष्पत्ति तदंगोपांगनाम, यस्य कर्मण उदयेननलकबाहूरूदरनितम्बोरःपृष्ठशिरांस्यष्टावंगानि उपांगानि च मूर्द्धक रोटिमस्तकललाटसंधि कर्णनासिकानयनाक्षिकूप हनुकपोलाधरोष्ठ सृक्ता लुजिह्व ग्रीवास्तन चूचुकांगुल्यादीनि भवन्ति । तदंगोपांग त्रिविधमौदा रिकशरीरांगोपांगं, वैक्रियिकशरीरांगोपांगम्, आहारक शरीरांगोपांगं चेति । यस्य कर्मण उदयेनौदारिकांगोपांगानि भवन्ति तददारिकांगोपांगं नावमन्यत्रापि योज्यम् । यदुदयाच्छरीरे वर्णविभागनिष्पत्तिस्तद्वर्णनाम स्यात्तदभावे शरीरमवर्णं स्यात् । तत्पंचविधं कृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, रक्तवर्णनाम, हरितवर्णनाम, शुक्लवर्णनाम चेति । यस्य कर्मण उदयेन शरीरपुद्गलानां कृष्णवर्णता भवति तत्कृष्णवर्णना मैवं शेषाणामपि द्रष्टव्यम् । यस्य कर्म स्कन्धस्यो अभेद्य हों और नाराच - कीली भी वज्र की हों, अर्थात् वज्र की हड्डियाँ वज्र के वेष्टन से वेष्टित हों और वज्र की कीलियों से कीलित हों वह वज्रर्षभनाराच संहनन है । जिस कर्म के उदय से हड्डियों के बन्धन तो वज्र की कीलियों से कीलित हों किन्तु ऋषभ - स्नायुवेष्टन न हो वह वज्रनाराचसंहनन है । जिसकर्म के उदय से हड्डियों का बन्धन वज्र विशेषण से रहित, साधारण नाराच - कीलियों से कीलित हो वह नाराचसंहनन है । जिसकर्म के उदय से हड्डियों का समूह नाराच से आधा कीलित हो अर्थात् एक तरफ कीलित हो, दूसरी तरफ नहीं, वह अर्धनाराचसंहनन, चौथा है। जिसके उदय से हड्डियाँ वज्ज्र के वेष्टन से वेष्टित न हों और वज्रनाराच से कीलित भी न हों वह कीलकसंहनन, पाँचवाँ है । जिस कर्म के उदय से अन्दर हड्डियों में परस्पर में सन्धि न हों और वे बाहर भी सिरा और स्नायु से जुड़ी हुई न हों, हड्डियों के ऐसे बन्धन को असंप्राप्तसृपाटिका संहनन कहते हैं । (८) जिस कर्म के उदय से अंग और उपांगों की स्पष्ट रचना हो वह अंगोपांगकर्म है । नलक हाथ, पैर, पेट, नितम्ब, छाती, पीठ और शिर ये आठ अंग हैं । मस्तक की हडडी, मस्तक, ललाट, भुजसन्धि, कान, नाक, नेत्र, अक्षिकूप, ठुड्डी, गाल, ओंठ, ओंठ के किनारे, तालु, जीभ, गर्दन, स्तन, चूचुक, अंगुलि आदि उपांग हैं। इस अंगोपांगकर्म के तीन भेद हैं- ओदारिकशरीर - अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर अंगोपांग और आहारकशरीर अंगोपांग । जिसके उदय से औदारिकशरीर के अंग और उपांगों की रचना होती है वह औदारिकशरीर अंगोपांग है । ऐसे ही अन्य दोनों में घटित कर लेना चाहिए । ( 2 ) जिस कर्म के उदय से शरीर में वर्ण उत्पन्न होता है वह वर्णनाम कर्म है । इसके अभाव में शरीर वर्णशून्य हो जाएगा। इसके पाँच भेद हैं-कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, ह्रितवर्ण और शुक्लवर्ण । जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गलों को कृष्णता प्राप्त होती है वह कृष्णवर्ण नामकर्म है । इसी तरह सर्वत्र समझना । १. क उदयेन यान्यस्थीनि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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