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[भूलाचारे संघडणंगोवंगं वण्णरसगंधफासमणुपुवी। अगुरुलहुगुवघादं परघादमुस्सास णामं च ॥१२३७॥ आदावुज्जोदविहायगइजुयलतस सुहुमणामं च । पज्जत्तसाहरणजुग थिरसुह सुहगं च आदेज्ज ॥१२३८॥ अथिरअसुहदुब्भगयाणादेज्ज दुस्सरं अजसकित्ती।
सुस्सरजसकित्ती विय णिमिणं तित्थयर णामबादालं ॥१२३६॥ नारकादिषु संबन्धत्वेनायुषो भेदव्यपदेशः क्रियते । नारकेषु भवं नारकायुः, तिर्यक्षु भवं तैरश्चायुः, मनुष्येषु भवं मानुष्यायुः, देवेषु भवं दैवायुः, एवमायूंषि चत्वारि । येषां कर्मस्कन्धानामुदयेन जीवस्याधोगतिस्वभावेषु नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु दीर्घजीवनेनावस्थानं भवति तेषां नारकायुरिति संज्ञा येषां । पुद्गलस्कन्धानामुदयेन तिर्यङ्मनुष्यदेवभवानामवस्थानं भवति तेषां तैरश्चमानुषदेवायूंषि इति संज्ञति । गतिर्भव. संसारः, यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिर्यदि गतिनाम कर्म न स्यात्तदाऽगतिर्जीवः स्यात्। यस्मिन जीवभावे सत्याय:कर्मणो यथावस्थानं शरीरादीनि कर्माणि उदयं गच्छन्ति स भावो यस्य पदगलस्कन्धस्य मिथ्यात्वादिकारण प्राप्तकर्मण उदयाद्भवति तस्या गतिरिति संज्ञा। सा चतुर्विधा-नरकगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुष्यगतिः, देवगतिश्चेति । येषां कर्मस्कन्धानामुदयादात्मना नारकादिभावस्तेषां नरकगत्यादयः संज्ञाश्चतस्रो
१०. रस, ११. गन्ध, १२. स्पर्श, १३. आनुपूर्वी, १४. अगुरुलघु, १५. उपघात, १६. परघात, १७. उच्छवास, १८.आतप, १६. उद्योत, २०. विहायोगति, २१. स, २२. स्थावर, २३. सक्ष्म, २४. बादर, २५. पर्याप्त, २६. अपर्याप्त, २७. साधारण, २८. प्रत्येक, २६. स्थिर, ३०. शुभ, ३१. सुभग, ३२. आदेय, ३३. अस्थिर, ३४. अशुभ, ३५. दुर्भग, ३६. अनादेय, ३७. दुःस्वर, ३८. अयशस्कीर्ति, ३६. सुस्वर, ४०. यशस्कीर्ति, ४१. निर्माण और ४२. तीर्थकरत्व-ये व्यालीस भेद नामकर्म के हैं ॥१२३६-३६।।
आचारवृत्ति-नारक आदि से सम्बन्धित होने से आयु के भेद होते हैं। नारकियों में होनेवाले भवधारण के कारण को नरकायु कहते हैं। तिर्यंचों में होनेवाली तिर्यंचायु, मनुष्यों में होनेवाली मनुष्यायु और देवों में होनेवालो देवायु है, आयु के ऐसे चार भेद हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से तीव्र, शीत, उष्ण वेदना से युक्त, अधोगति स्वभाववाले नरकों में दीर्घकाल तक जीते हए जीवों का जो वहाँ पर अवस्थान होता है उनकी संज्ञा नारकायु है । जिन पुद्गल स्कन्धों के उदय से तिर्यंच, मनुष्य और देव के भवों में अवस्थान होता है उन्हें क्रमशः तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु कहते हैं। __ अब आगे नामकर्म के सर्वभेद और उनके लक्षणों को कहते है
(१) गति, भव और संसार एकार्थवाची हैं। जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को जाता है वह गति है। यदि गति नामकर्म न हो तो जीव गतिरहित हो जायेगा। जिस कर्म के उदय से जीव में रहने से आयु कर्म को स्थिति रहती है और शरीर आदि कर्म उदय को प्राप्त होते हैं उसे गति कहते हैं । अर्थात् मिथ्यात्व आदि कारणों से कर्म-अवस्था को प्राप्त जिन पुदगलस्कन्धों के उदय से वह भवान्तर गमनरूप अवस्था होती है उसका गति नाम सार्थक है। उसके चार भेद हैं-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति । जिन कर्मस्कन्धों के
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