Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ३५६ ] [ मूलाधारे सातमसातं द्विविधं वेदनीयं तथैव मोहनीयमपि द्विविध दर्शनमोहनीयं चरित्रमोहनीयं च, द्विविधमुत्तरत्र भणति तेन सह संबन्धः । चरित्रमोहनीयमपि द्विविधं कषायमोहनीयनोकषायमोहनीयभेदेन । सातं सुखं सांसारिकं तद्भोजयति वेदयति जीवं सातवेदनीयम् । असातं दुःख, तद्भोजयति वदयति जीवमसात वेदनीयम् । यदुदयाद्देवादिगतिषु शारीरिक मानसिक सुखप्राप्तिस्तत्सात वेदनीयं यदुदयान्नरकादिगतिषु शारीरमानसदुःखानुभवनं तदसात वेदनीयम् । एवं वेदनीयकर्मणो द्वे प्रकृती सुखदुःखानुभवननिबन्धनः पुद्गलस्कन्धचयो मिथ्यात्वादिप्रत्ययवशेन कर्मपर्यायपरिणतो जीवसमवेतो वेदनीयमिति । आप्तसमयपदार्थेषु रुचिः श्रद्धा दर्शन, तन्मोहयति परतन्त्रं करोति दर्शनमोहनीयम् । पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् । तत्र, घातिकर्माणि पापं, तेषां क्रिया मिथ्यात्वा संयमकषायास्तेषामभावश्चारित्रम् । दुःखसस्यं कर्मक्षेत्र कृषन्ति फलवत्कुर्वन्तीति कषायाः । ईषत्कषाया नोकषायाः, स्थित्यनुभागोदये कषायेभ्य एतेषां स्तोकत्वं यत ईषत्कषायत्वं युक्तमिति ॥ १२३ ॥ दर्शन मोहनीयस्य कषायनोकषायाणां च भेदानाह यो, द्वो, षोडश, नव भेदा यथाक्रमेण ज्ञातव्याः । दर्शनमोहनीयस्य त्रयो भेदाः । चारित्रमोहनीयर भेदौ । चारित्रकषायमोहनीयस्य षोडश भेदाः । चारित्रनोकषायमोहनीयस्य नव भेदाः । अथ दर्शनमोहनीयस्य के ते त्रयो भेदा इत्याशंकायामाह - मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वं सम्यमिध्यात्वमिति त्रयो भेदाः दर्शन मोहनीयस्य, आचारवृत्ति- - साता और असाता के भेद से वेदनीय के दो भेद होते हैं । जो सांसारिक सुख का जीव को अनुभव कराता है वह सातावेदनीय है और जो असाता अर्थात् दुख का जीव को अनुभव कराता है वह असातावेदनीय है । अर्थात् जिसके उदय से जीव को देव आदि गतियों में शारीरिक और मानसिक सुख की प्राप्ति होती है वह सातावेदनीय है तथा जिसके उदय से नरक आदि गतियों में शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव होता है वह असातावेदनीय है । इस प्रकार से वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं । सुख-दुःख के अनुभव करने में निमित्तभूत पुदगल स्कन्धों का समूह रूप तथा मिथ्यात्व आदि प्रत्यय के निमित्त से कर्मपर्याय से परिणत हुआ जीव उनसे समन्वित होने से वेदनीय है । मोहनीय के दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । 'द्विविधं' शब्द आगे की गाथा में है उसीसे सम्बन्ध कर लेना । चारित्रमोहनीय के भी दो भेद हैं- कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय | आप्त, आगम और पदार्थों में रुचि अर्थात् श्रद्धा दर्शन है, उसे जो मोहित करता हैपरतन्त्र करता है वह दर्शनमोहनीय है । पापक्रिया से निवृत्ति चारित्र । उसमें घातिकर्मों को पाप कहा गया है, उनकी क्रियाएँ मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं । उनका अभाव होना चारित्र है । दुःखरूपी धान्य के लिए कारणभूत कर्मरूपी खेत का जो कर्षण करती हैं-जोतती हैं और उसे फलित करती हैं वे कषाय हैं । ईषत् - किंचित् कषाय को नोकषाय कहते हैं । स्थिति और अनुभाग के उदय के समय इनमें कषायों की अपेक्षा अल्पता रहती है इसीलिए इन्हें ईषत्कषाय या नोकषाय कहना युक्त है। दर्शन मोहनीय के तीन, चारित्रमोहनीय के दो, चारित्रकषायमोहनीय के सोलह और चारित्रनोकषायमोहनीय के नौ भेद हैं । दर्शनमोहनीय के तीन भेद कौन-से हैं उन्हें यहाँ बताते हैं—मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यङ मिथ्यात्व ये तीन भेद हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456