Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 388
________________ ३५४ ] [ मूलाचार आवरणमित्यनुवर्तते तेन सह संबन्धः । निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धिः, निद्रा, प्रचला, अन्न दर्शनावरण सामानाधिकरण्येन दृश्यते', निद्रानिद्रा चासो दर्शनावरणं च, एवं प्रचलाप्रचला दर्शनावरण, स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणं, निद्रा दर्शनावरणं, प्रचला दर्शनावरणं, उत्तरत्र वैयधिकरण्येन चक्षुर्दर्शनावरणमचक्षुर्दर्शनावरणमवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणं चेति नवविधं दर्शनावरणमेतदिति। तत्र मन्दखेदक्लमविनोदार्थ स्वापो निद्रा, तस्या उपर्युपरि वत्तिनिद्रानिद्रा। स्वापक्रिययात्मानं प्रचलयति सा प्रचला। शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविकृतिसुचिकासौ च पुनः पुनर्वर्तमाना प्रचलाप्रचला। स्वप्ने वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः स्त्यायतेरनेकार्थत्वात् स्वापार्थ इह गृह्यते, गृधेरपि' दृप्तिः स्त्याने स्वप्ने गृध्यते दृष्यते' यदुदयादात्मा रौद्रं बहुकर्म करोति स्त्यानगृद्धिः । तत्र, निद्रानिद्रादर्शनावरणोदयेन वृक्षाग्रे समभूमो यत्र तत्र देशे घोरं रवं घोरयन्निर्भरम स्वपिति । प्रचलाप्रचलातीवोदयेन आसीन उत्थितो वा गलल्लालामुखं पुनः पुनः शरीरं शिरश्च कम्पयन निर्भर स्वपिति । स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणोदयेन उत्थितोऽपि पुनः स्वपिति, सुप्तोऽपि कर्म करोति, दन्तान कटकटायमानः शेते इति । निद्रायास्तीवोदयेनाल्पकालं स्वपिति, उत्थाप्यमानः सोऽपि शीघ्रमत्तिष्ठति, ___ आचारवृत्ति-आवरण शब्द पिछली गाथा में है, वहाँ से इसका सम्बन्ध कर लेना। निद्रानिद्रा आदि पाँचों में दर्शनावरण सामानाधिकरण्य से देखा जाता है इसलिए उसको सबके साथ लगाना तथा आगे चक्षु आदि चार में वैयधिकरण्य से दर्शनावरण है अतः उनके साथ भी उसे लगा लेना चाहिए । तब निद्रानिद्रादर्शनावरण, प्रचलाप्रचलादर्शनावरण, स्त्यानगृद्धिदर्शनावरण, निद्रादर्शनावरण, प्रचलादर्शनावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये नौ भेद दर्शनावरण के होते हैं। मद, खेद और श्रम को दूर करने के लिए सोना निद्रा है। उसकी अधिक से अधिक प्रवृत्ति निद्रानिद्रा है। सोने की क्रिया से अपने को चलायमान करना प्रचला है । शोक, श्रम, मद आदि से उत्पन्न होती है और बैठा होने पर भी नेत्र और शरीर में विकृति सूचित करती है। इसके आगे पुन:पुनः होनेवाली प्रचलाप्रचला है। सोने में शक्तिविशेष को प्रकट करनेवाली स्त्यानगृद्धि है। 'स्त्याय' धातु अनेकार्थवाची है अतः यहाँ उसका सोना अर्थ विवक्षित है। 'गृध्' धातु दृप्ति अर्थ में है, इसलिए स्त्यान-सोने में जो प्रकट होती है अर्थात् जिसके उदय से आत्मा सोता-सोता भी बहुत-से रौद्र कार्य कर लेता है वह स्त्यानगृद्धि है। १. निद्रानिद्रादर्शनावरण के उदय से यह जीव वृक्ष के अग्र भाग पर या समभूमि पर अर्थात् जिस किसी भी स्थान पर घोर शब्द करता हुआ, खुर्राटे भरता हुआ, खूब सोता है। २. प्रचलाप्रचला के तीव्र उदय से यह जीव बैठा हुआ अथवा खड़ा हुआ ही शरीर और मस्तक को कॅपाता हुआ, ऊंघता हुआ अतिशय रूप से सोता रहता है तथा उसके मुख से लार भी बहती रहती है। ३. स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण के उदय से वह जागकर भी पुनः सो जाता है और सोतेसोते भी कार्य कर लेता है अर्थात् नींद में ही उठकर कार्य कर आता है, पुनः सो जाता है, उसे पता नहीं चल पाता है। यह सोते समय दाँत भी कटकटाता रहता है। ४. निद्रा के तीव्र उदय से यह अल्पकाल ही सोता है, जगाने पर शीघ्र ही उठ जाता है तथा अल्पशब्दों से ही अर्थात् जरा-सो आवाज से ही जग जाता है। १. क संबध्यते। २. क दीप्तिः। ३. क दीप्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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