Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ ३५२ [ मलाचारे भागे हुते तत्रैकभागं जानाति, क्षेत्रतोऽसंख्यातलोकं जानाति, कालत पल्योपमं जानाति, भावतोऽसंख्यातलोकपर्यायान् जानाति । उत्कृष्टो द्रव्यतो मनोवगंणाया अनन्तभागं जानाति, क्षेत्रतोऽसंख्या तल्लोकान् जानाति, कालतोऽसंख्यातलोकसमयान् जानाति, भावतोऽसंख्यात लोकपर्यायान् जानाति । सर्वावधिद्रव्यत एकं परमाणुं जानाति, क्षेत्रतोऽसंख्या तल्लोकान् जानाति, कालतोऽसंख्यात लोकसमयान् जानाति, भावतोऽसंख्यातलोकपर्यायान् जानाति । सर्वत्रा संख्यातगुणो गुणकारो द्रष्टव्यः पूर्वपूर्वापेक्षया अनुगाम्यननुगामिवर्द्धमानहीयमानावस्थितभेदात् षड्विधो वावधिः, एतस्थावधिज्ञानस्यावरणमवधिज्ञानावरणम् । मन:पर्ययज्ञानमृजुविपुलमतिभेदेन द्विविधमृजुमतिमन:पर्ययज्ञानं विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानम् चेति । ऋज्वी प्रगुणा निर्वर्तिता मतिः ऋजुमतिः वाक्कायमनस्कृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानं निर्वर्तिता, अनिवर्तिता कुटिला विपुला च मतिर्विपुलमति, अनिर्वर्तिता वाक्कायमनस्कृतार्थस्य परकीय मनोगतस्य विज्ञानात्, अथवा ऋज्वी मतियस्य ज्ञान - विशेषस्यासी ऋजुमतिविपुला मतियस्यासी विपुलमतिः । ऋजुमतिर्विपुलमतिश्च मनः पर्ययः । तत्र ऋजुमतिद्रव्यतो जघन्येनैकसामयिकीं औदारिकशरीरनिर्जरां जानात्युत्कृष्टत एकसामयिकी चक्षुरिन्द्रियनिर्जरां जानाति, जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक प्रमाण क्षेत्र को जानता है । काल से पल्योपम प्रमाण काल को जानता है आर भाव से असंख्यात लोक प्रमाण पर्यायों को जानता है । यह परमावधि उत्कृष्ट से द्रव्य की अपेक्षा मनोवर्गणा के अनन्तवें भाग को जानता है । क्षेत्र से असंख्यात लोकों को जानता है । काल से असंख्यात लोक के समयों को जानता है। और भाव से असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायों को जानता है । सर्वावधि ज्ञान भी द्रव्य से एक परमाणु मात्र को जानता है । क्षेत्र से असंख्यात लोक प्रमाण को जानता है । काल से असंख्यात लोकप्रमाण समयों को जानता है और भाव से असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायों को जानता है । यहाँ पर जो असंख्यातगुणा है वह पूर्व पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक ही समझना । इस सर्वावधि में जघन्य भेद नहीं होता है । जिस ज्ञान विशेष की वह ज्ञान विपुलमति मन:पर्यय है । यहाँ सर्वत्र असंख्यात गुणा गुणकार है । अर्थात् पूर्व पूर्व की अपेक्षा से उत्तर भेद में असंख्यात गुणित गुणाकार समझना चाहिए । अवधिज्ञान के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ऐसे छह भेद भी होते हैं । इस अवधिज्ञान के वाररण को अवधिज्ञानावरण कहते हैं । अतः जितने अवधिज्ञान के भेद हैं उतने ही आवरण के भेद समझ लेना चाहिये । मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं--ऋजुमति और विपुतमति । ऋज्वी -- सरल मन-वचनकाय से रची हुई मति ऋजुमति है । अर्थात् पर के मन में स्थित जो पदार्थ हैं उनको उसने सरल मन-वचन-काय से चिन्तन किया है, उसे जो जान लेते हैं । उनके ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान है । अथवा ऋज्वी-सरल मति है जिस ज्ञान विशेष को वह ऋजुमति है । विपुला - कुटिल मन-वचनकाय से अनिर्वर्तितमति विपुला है। जो मुनि कुटिल मन-वचन-काय से सोचे गये पर के मन में स्थित पदार्थ को जान लेता है उसके विपुलमति मन:पर्ययज्ञान होता है, अथवा विपुला - कुटिल मति है जिसकी वह विपुलमति है । ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जघन्य से द्रव्य की अपेक्षा एक समय में होनेवाली औदारिक १. क असंख्यातान् लोकान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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