Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ पर्याप्स्यधिकारः] [ ३५५ अल्पशब्देन चेतयते । प्रचलायास्तीवोदयेन वालकाभते इव लोचने भवतः, गुरुभारावष्टब्धमिव शिरो भवति, पुनः पुनर्लोचने उन्मीलयति स्वपन्तमात्मान वारयति । चक्षुर्ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धगुणीभूतविशेषसामान्यालोचनं चक्षुर्दर्शनरूपं दर्शनक्षम, तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणम । शेषेन्द्रियज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धगुणीभूतविशेषसामान्यालोचनमचक्षदर्शनं, तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणम् । अवधिज्ञानोत्पादकप्रयत्नानविद्धस गुणीभूतविशेषरूपिवस्तुसामान्यालोचनमवधिदर्शनं, तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम् । युगपत्सर्वद्रव्यपर्यायसामान्यविशेषप्रकाशकं केवलज्ञानाविनाभाविकेवलदर्शनं तस्यावरणं केवलदर्शनावरणम्। मिथ्यात्वासंयममषाययोगकरूपेण परिणतो जीवसमवेतदर्शनगुणप्रतिबन्धकस्तदर्शनावरणमिति ॥१२३१॥ वेदनीयमोहनीययोरुत्तरप्रकृतीः प्रतिपादयन्नाह सादमसादं दुविहं वेदणियं तहेव मोहणीयं च । दसणचरित्तमोहं कसाय तह णोकसायं च ।।१२३२॥ तिण्णिय दुवेय सोलस णवभेदा जहाकमेण णायव्वा । मिच्छत्तं सम्मतं सम्मामिच्छत्तमिदि तिष्णि ॥१२३३॥ ५ प्रचला के तीव्र उदय से उसके नेत्र बाल से भरे हए के समान भारी हो जाते हैं, सिर भी बहुत भारी भार को धारण किये हुए के समान हो जाता है। यह पुन-पुनः नेत्र खोलता रहता है और सोते हुए अपने को रोकता रहता है। ६. चक्षु के ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले प्रयत्न के साथ अविनाभावी, और जिसमें विशेष धर्म गौण है ऐसे सामान्य मात्र को अवलोकन करने में समर्थ चक्षुर्दशन है, उसके आवरण का नाम चक्षुर्दर्शनावरण है। ७. चक्षु के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों के ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले प्रयत्न से अविनाभावी, और जिसमें विशेष धर्म गौण है ऐसा सामान्यमात्र का अवलोकन करनेवाला अचक्षुर्दर्शन है, उसके आवरण का नाम अचक्षुर्दर्शनावरण है । ८. अवधिज्ञान के उत्पादक प्रयत्न के साथ अविनाभाव से रहित, और जिसमें विशेष गौण है ऐसी रूपी वस्तु का जो सामान्य अवलोकन करना है वह अवधिदर्शन है। उसके आवरण का नाम अवधिदर्शनावरण है। ६. जो युगपत् सर्वद्रव्यों और पर्यायों के सामान्य-विशेष को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञानाविनाभावी है उस का दर्शन केवलदर्शन है, उसके आवरण का नाम केवलदर्शनावरण है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के साथ एकरूप से परिणत, और जीव के साथ समन्वित दर्शन गुण को जो रोकनेवाला है वह दर्शनावरण है, ऐसा समझना। वेदनीय और मोहनीय की उत्तरप्रकृतियों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ—साता और असाता से वेदनीय के दो भेद हैं। मोहनीय के दर्शनमोह और चारित्रमोह ये दो भेद हैं। तथा क्रम से दर्शनमोहनीय के तीन एवं चारित्रमोह के कषाय और नोकषाय ये दो भेद हैं। कषाय के सोलह और नोकषाय के नौ भेद जानना चाहिए । दर्शनमीह के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद भी होते हैं । १२३२-३३॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456