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पर्याप्यधिकारः ]
भावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणु परिच्छदेनावधारणं प्रदेश इति । एवं चतुविधः एव बन्ध इति ।। १२२७॥ तत्राद्यस्य मूलप्रकृतिबन्धस्य भेददर्शनार्थमाह
णाणस्स दंसणस्य य आवरणं वेदणीय मोहणियं । आउगणामा गोदं तहंतरायं च मूलाओ ।। १२२८ ॥
आवृणोत्याव्रियतेऽनेनेति वावरणं तत्प्रत्येकमभिसंबध्यते, ज्ञानस्यावरणं दर्शनस्यावरणम् । वेदयति वेद्यतेऽनेनेति वा वेदनीयम् । मोहयति मुह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम् । एत्यनेन नरकादिभवमित्यायुः । नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्दयते गोत्रम् । दातृदेयादीनामन्तरम् मध्यमे' यातीत्यन्तरायः । तथा तेन प्रकारेण मूला उत्तरप्रकृत्याधारभूता अष्टो प्रकृतयो भवन्तीति । स एषः मूलः प्रकृतिबन्ध इति ।
॥। १२२८॥
इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धमाह-
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चदुरो तहेव वादालं ।
दोणि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव ॥ १२२ ॥
अनुभाग है । इयत्ता -' इतना है' ऐसा निश्चय होना प्रदेश है । कर्मभाव से परिणत हुए पद्गलों में पुद्गलस्कन्धों का परमाणु को गणना से निश्चय करना प्रदेश है । इस तरह ये चार प्रकार ध हैं ।
उनमें आदि के मूल प्रकृतिबन्ध के भेदों को दिखलाते हैं
गाथार्थ -- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्त - राय ये आठ मूलप्रकृतियाँ हैं ।। १२२८ ।।
श्राचारवृत्ति - जो ढकता है अथवा जिसके द्वारा ढका जाता है वह आवरण है । उसे ज्ञान और दर्शन इन दोनों में लगाने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो भेद हो जाते हैं । जो वेदन करता है अथवा जिसके द्वारा वेदन-अनुभव कराया जाता है वह वेदनीय है । जो मोहित करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोहनीय है । जिसके द्वारा नरक आदि भव प्राप्त किया जाता है वह आयु है । जो आत्मा को नमाता है- अनेक नाम प्राप्त कराता अथवा जिसके द्वारा आत्मा झुकाई जाती है वह नाम है। जिसके द्वारा ऊँच-नीच शब्द से पुकारा जाता है वह गोत्र है । जो दाता और देय - देनेयोग्य पात्र आदि में अन्तर डाल देता है अर्थात् इनके मध्य में आ जाता है वह अन्तराय है । इस प्रकार ये आठ मूलप्रकृतियाँ हैं जो कि उत्तरप्रकृतियों के लिए आधारभूत हैं । ये मूलप्रकृतिबन्ध के आठ भेद हैं ।
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अब उत्तरप्रकृतिबन्ध कहते हैं
गाथार्थ - पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस, दो और पाँच ये उत्तरप्रकृतियाँ कही गयी हैं ।। १२२६ ॥
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१. क मध्यमेत्यन्तरायः ।
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