Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 383
________________ प्रात्यधिकार (३४६ दीनामपि द्वादशभेदा ज्ञातव्याः। [यथा चक्षुरिन्द्रियस्याष्टचत्वारिंशभेदास्तथा पंचनामिन्द्रियाणां षष्ठस्य मनसश्चैवमष्टाशीत्युत्तरद्विशतभेदा भवन्ति तेषु व्यंजनावग्रहस्याष्टचत्वारिंशद्भेदानां मिश्रणे कृते सति षत्रिंशदत्तरत्रिशतभेदा आभिनिबोधिकस्य ज्ञानस्य भवन्ति ज्ञानभेदादावरणस्यापि भेदो द्रष्टव्य इति । श्रुतज्ञानमपि पर्यायादिभेदेन विशतिभेदम् । पर्यायः, पर्यायसमासः, अक्षरम्, अक्षरसमासः, पदं, पदसमासः, संघातः, संघातसमासः, प्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तिसमासः, अनियोगः, अनियोगसमासः, प्राभूतकः, प्राभूतकसमासः प्राभूतकप्राभूतकः, प्राभृतकप्राभृतकसमासः, वस्तु, वस्तुसमासः, पूर्व, पूर्वसमासः। तत्राक्षराणां भावादक्षरं केवलज्ञानं तस्यान्तभागः पर्यायलब्ध्यक्षरसंज्ञक केवलज्ञानमिव निरावरणं सूक्ष्मनिगोदस्य तदपि भवति तत्स्वकीयानन्तभागेनाधिकं पर्यायसंज्ञक भवति ज्ञानं तस्मादुत्पन्नं श्रुतमपि पर्यायसंज्ञक कार्य कारणोपचारात्। ततस्त. देवानन्तभागेन स्वकीयेनाधिकं पर्यायसमासः । एवमनन्तभागासंख्यातगुणानन्तगुणवृद्धया चकाक्षरं भवति पदार्थ को ग्रहण करना अनक्त अवग्रह है। जैसे चक्ष इन्द्रिय से द्रव्यान्तर को ग्रहण करना। निर्णय से ग्रहण करना ध्रुव अवग्रह है और उससे विपरीत अध्रुव अवग्रह है। ये बारह भेद जिस प्रकार से अवग्रह में लगाये हैं उसी प्रकार से ये ईहा आदि के भी बारह-बारह भेद जानना चाहिए। तथा जिस प्रकार से ये अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के बारहबारहभेद करके अड़तालीस भेद चक्ष इन्द्रिय के बताये गये हैं वैसे ही पाँचों इन्द्रिय अर्थात शेष चार इन्द्रियों के और छठे मन के अड़तालीस-अड़तालीस भेद होने से सब मिलकर दो सौ अठासी भेद हो जाते हैं। इनमें व्यंजनावग्रह के अड़तालीस भेद मिला देने पर आभिनिबोधिक ज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। अर्थात् व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है अत: उस अवग्रह को चार इन्द्रिय से गुणा करके बहु आदि बारह भेदों से गुणा कर देने पर अड़तालीस भेद हो जाते हैं, सो २८८+४८=३३६ कुल मिलकर मतिज्ञान के भेद होते हैं। इन ज्ञान के भेदों से आवरण के भी उतने ही भेद जानना चाहिए। श्रुतज्ञान भी 'पर्याय' आदि के भेदों से बीस प्रकार का है। पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात,संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनियोग, अनियोगसमास, प्राभूतक, प्राभृतकसमास, प्राभृतकप्राभृतक प्राभृतकप्राभृतकसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास । उनमें से अक्षरों का सद्भाव होने से केवलज्ञान अक्षर है। उसके अनन्तवें भाग का पर्याय लब्ध्यक्षर नाम है। यह ज्ञान केवलज्ञान के समान निरावरण है। यह ज्ञान सुक्ष्म निगोद जीव के होता है। यह अपने अनन्तभाग से अधिक पर्यायसंज्ञक ज्ञान कहलाता है। उससे उत्पन्न हुए श्रुत की भी पर्याय संज्ञा है चूंकि यहाँ कार्य में कारण का उपचार है। अर्थात् लब्धि नाम श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम का है और अक्षर नाम अविनश्वर का है इसलिए इस ज्ञान को लब्ध्यक्षर कहते हैं क्योंकि इतने इस क्षयोपशम का जीव के कभी भी विनाश नहीं होता है। यह सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में स्पर्शन-इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पूर्वक लब्ध्यक्षर रूप श्रुतज्ञान होता है। वही ज्ञान जब अपने अनन्त भाग से अधिक होता है तब पर्यायसमास होता है . Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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