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पर्याप्तत्यधिकारः ]
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मावेन्द्रियं च द्रव्येन्द्रियं द्विविधं निर्व त्युपकरणभेदेन, भावेन्द्रियमपि द्विविधं लब्ध्युपयोगभेदेन, तत्र द्रव्येन्द्रियस्य निर्वृतेर्भावेन्द्रियस्य च लब्धेः संस्थानमेतत्, उपयोगो भावेन्द्रियं च ज्ञानं तस्याकारो विषपपरिच्छित्तिरेव ॥ १०६३॥
यद्येवं स एव विषयः कियानिति प्रतिपाद्यतामित्युक्तेऽत आह
चत्तारि धणुसदाई चउसट्ठी धणुसयं च फस्सरसे । गंधे गुणगुणा अष्णिपचदिया जाव ॥ १०६४॥
चत्तारि - चत्वारि, धणुसदाइ – धनुःशतानि चउसट्ठी - चतुःषष्टिर्धनुषामिति संबन्ध: धनुषां चतुभिरक्षिका षष्टिः, धणुसयं च - धनुः शतं च फस्सरसे - स्पर्श रसयोः स्पर्शनेन्द्रियस्य रसनेन्द्रियस्य, गंधे य-गंधस्य च घ्राणेन्द्रियस्य च बुगुणगुणा - द्विगुणद्विगुणा:, असणिपंचिदिया जाव - असं जिपंचेन्द्रियं यावत् । एकेन्द्रियमारभ्य यावदसंज्ञिपंचेन्द्रियस्य विषयः स्पर्शविषय उतरत्र कथ्यते तेन सह संबन्धः । एकेन्द्रि यस्य स्पर्शनेन्द्रियविषयश्चत्वारि धनुः शतानि एतावताध्वना स्थितं स्पर्शं गृह्णन्ति पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजःSarfararefusarस्पतिकायिका उत्कृष्टशक्तियुक्तस्पर्शनेन्द्रियेण । तथा द्वीन्द्रियस्य रसनेन्द्रियविषयश्चतुःषष्टिनुषां एतावतावना स्थितं रसं गृह्णाति रसनेन्द्रियेण द्वीन्द्रियस्तथा तस्यैव द्वीन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियविषयोष्टी धनुः शतानि एतावताऽवना स्थितं स्पर्शं गृह्णाति द्वीन्द्रियः स्पर्शनेन्द्रियेण तथा त्रीन्द्रियस्य घ्राणेन्द्रियविषयः धनुषां शतं एतावताध्वना स्थितं गन्धं गृह्णाति त्रीन्द्रियो घ्राणेन्द्रियेण तथा तस्यैव त्रीन्द्रियस्य स्पर्शनेन्द्रियविषयः षोडशधनुः शतानि एतावताध्वना व्यवस्थितं स्पर्शं गृह्णाति त्रीन्द्रियः स्पर्शनेन्द्रियेण तथा तस्यैव
के भेद से द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं तथा लब्धि और उपयोग के भेद से भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं । उनमें से निर्व त्तिरूप द्रव्येन्द्रिय और लब्धिरूप भावेन्द्रिय के आकार ऊपर बताए जा चुके हैंचूँकि उपयोग नामवाली जो भावेन्द्रिय है उसका आकार विषय को जानना ही है ।
इन्द्रियाँ यदि ऐसी हैं तो उनका वह विषय कितना है, सो बताइए ? ऐसा पूछने पर
कहते हैं
गाथार्थ - स्पर्शनेन्द्रिय का विषय क्षेत्र चार सौ धनुष, रसना इन्द्रिय का चौसठ धनुष और घ्राणेन्द्रिय का सौ धनुष प्रमाण है । आगे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त यह दूना दूना होता गया है ।। १०६४ ||*
श्राचारवृत्ति - एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय पर्यन्त स्पर्शादि विषय को आगे-आगे कहते हैं, उसके साथ सम्बन्ध करना । वही बताते हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायकायिक जीव उत्कृष्ट शक्तियुक्त स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा चार सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर लेते हैं । द्वीन्द्रिय जीव रसना इन्द्रिय द्वारा चौंसठ धनुष तक स्थित रस को ग्रहण कर लेते हैं । वे ही द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा आठ सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में स्थित स्पर्श को ग्रहण कर लेते हैं। तीन इन्द्रिय जीव घ्राणेन्द्रिय द्वारा सौ धनुष पर्यन्त स्थित गन्ध को ग्रहण कर लेते हैं। ये ही तीन इन्द्रिय जीव स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा सोलह सौ धनुष पर्यन्त मार्ग में अवस्थित स्पर्श को ग्रहण कर सकते हैं और रसना इन्द्रिय द्वारा एक सौ
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* १०९४ से ११०० तक की गाथाएं फलटन से प्रकाशित मूलाचार में गाथा १९५४ के बाद में दी गयी हैं ।
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