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[ मूलाचारे
नित्य निगोदेत रनिगोदपृथिवी कायिका कायिकतेजः कायिकवायुकायिकानां सप्तलक्षाणि योनीनाम् । तरूणां प्रत्येकवनस्पतीनां दशलक्षाणि योनीनाम् । विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां षट्शत सहस्राणि । सुराणां चत्वारि लक्षाणि । नारकाणां चत्वारि लक्षाणि । तिरश्चां सुरनारकमनुष्यवजितपंचेन्द्रियाणां चत्वारि लक्षाणि । मनुष्याणां चतुर्दशशतसहस्राणि योनीनामिति सम्बन्धः । एवं सर्वसमुदायेन चतुरशीतिशतसहस्राणि योनीनामिति । नात्र पौनरुक्त्यं पूर्वेण सहाधिकारभेदात् पर्यायार्थिक शिष्यानुग्रहणाच्च ॥ ११०६॥ आयुषः स्वरूपं प्रमाणेन स्वामित्वपूर्वकं प्रतिपादयन्नाह -
वारसवाससहस्सा श्राऊ सुद्ध े सुजाण उक्कस्सं । खरपुढविकायगेसु य वाससहस्वाणि बावीसा ॥११०७॥
नारकतियंङ मनुष्य देव भवधारणहेतुः कर्मपुद्गलपिड आयुः । औदारिक- ओदारिक मिश्रवे क्रियिकवऋियिक मिश्रशरीरसाधारणधारणलक्षणं वायुः । तत्र वारसवाससहस्सा - द्वादशवर्षसहस्राणि उच्छ्वा सानां त्रीणि सहस्राणि त्रिसप्तत्यधिकसप्तशतानि च गृहीत्वको मुहूर्तः आगमोक्त लक्षणमेतत् । लोकिकैः पुनः सप्तशतैरुच्छ्वासंर्मुहूर्तो भवति । आगमिक उच्छ्वास उदरप्रदेशनिर्गमाद्गृहीतो लौकिकः पुनः नासिकाया निर्गमाद् गृहीत इति न दोषः । त्रिंशन्मुहूर्तेंदिवस स्त्रिशद्भिर्दिवसैर्मासो द्वादशभिर्मासैर्वर्षः । आऊ - आयुः भवस्थिति: सुद्ध े सु- शुद्धषु शुद्धानां पृथिवीकायिकेष्विति सम्वन्धः जाण -- जानीहि उक्कफस्स - उत्कृष्टं, खरपुढविकायिगेय – खरपृथिवीकायिकेषु च मृत्तिकादयः शुद्धपृथिवीकायिकाः पाषाणादयः खरपृथिवीका
आचारवृत्ति - नित्यनिगोद, इतर निगोद, पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय और वायुका जीव इन छहों में प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हैं । प्रत्येक वनस्पति- कायिकों की दश लाख हैं । दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय- इनमें प्रत्येक की दो-दो लाख अर्थात् कुल छह लाख योनियाँ हैं । देवों की चार लाख, नारकियों की चार एवं पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार लाख योनियाँ हैं । मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ हैं । इस प्रकार समुदाय से चौरासी लाख योनियाँ होती हैं । यहाँ पर पुनरुक्ति दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व के साथ अधिकार-भेद है और पर्यायार्थिक नय वाले शिष्यों के अनुग्रह हेतु यह विस्तार कथन है ।
आयु का स्वरूप प्रमाण द्वारा स्वामित्वपूर्वक कहते हैं
गाथार्थ – पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष है और खर- पृथ्वीकायिक बाईस हज़ार वर्ष है ॥ ११०७ ॥
श्राचारवृत्ति - नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के भवों को धारण करने में कारण कर्मपुद्गल ' के पिण्ड को आयु कहते हैं । अथवा औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र शरीर के धारण करने रूप कर्म बुद्गलपिण्ड को आयु कहते हैं। तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है । आगम में मुहूर्त का यह लक्षण किया गया है । किन्तु लौकिक जनों ने सात सौ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त माना है । आगम में उदरप्रदेश से निकले हुए उच्छ्वास
ग्रहण है और लौकिक में नाक से निकले हुए उच्छ्वास का ग्रहण है इसलिए कोई दोष नहीं है । अर्थात् दोनों ही प्रकार के मुहूर्त में समय समान ही लगता है। तीस मुहूर्त का एक दिवस होता है, तीस दिवस का एक महिना और बारह महिने का एक वर्ष होता है । पाषाण आदि शुद्ध
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