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पर्याप्त्यधिकारः ]
[२८१ जावतु-यावत्, आरणअच्चुद--आरणाच्युतो, गमणं-गमनं, आगमणं च-आगमनं च, चशब्दः समुच्चये, होदि-भवति, देवीणं-देवीनां, तत्तो-ततस्ताभ्यामूध्वं परंतु-परतः, णियमा–नियमात् निश्चयात्, देवीणं-देवीनां, णत्थि-नास्ति न विद्यते, से-तासां, गमणं-गमनं । 'यावदारणाच्युतकल्पी तावदागमनं च भवति देवीनां ततः परेषु नवगैवेयकनवानुत्तर [नवानुदिश]—पंचानुत्तरेषु नास्ति तासां देवीनां गमनं कुत एतत् पूर्वागमात् ॥११३४॥ तमेवागमं प्रदर्शयतीति
कंदप्पमाभिजोगा देवीओ चावि आरणचुदोत्ति।
लंतवगादो उरि ण संति संमोहखिब्भिसया ॥११३५॥ कंदप्प-कन्दर्पस्य भावः कान्दपं कान्दर्पयोगाद्देवाः कान्दः प्रहासोपप्लवशीला:, आभिजोगाआभियोग्या वाहनसुराः, देवीओ-देव्यः, चावि-चापि समुच्चयसम्भावनार्थः, आरणचुदोत्ति—आरणाच्युतो, चशब्देन यावच्छब्दः समूच्चीयते । तेनैवमभिसम्बन्धः क्रियते । कान्दा आभियोग्या देव्योऽपि यावदारणाच्यूतो, अस्मादागमाज्ज्ञायते नास्ति देवीनामूध्वं गमनम् । लंतवगादो-लांतवकात्, उरि-उपरि ऊर्ध्वं न सन्ति न विद्यन्ते, संमोह-सम्मोहा भण्डदेवा नित्यमैथुनसेविनः श्ववत् । खिभिसया-किल्विषिकाः पाटहिकमौरजिकादयः वादित्रवादनपराः। लान्तवादुपरि किल्विषिकाः सम्मोहाश्च न सन्तीति ॥११३५।। लेश्यानां स्वामित्वेन स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
काऊ काऊ तह काउणील णीला य णोलकिण्हा य ।
किण्हाय परमकिण्हा लेस्सा रदणादि पुढवीसु ॥११३६॥ आचारवृत्ति-सोलहवें स्वर्गपर्यन्त ही देवियों का गमनागमन होता है। उसके ऊपर नव वेयक, नव अनुत्तर (नव अनुदिश) और पाँच अनुत्तरों में उन देवियों का गमन नहीं है। ऐसा क्यों ? पूर्वागम में ऐसा कहा हुआ है।
उसी आगम को दिखलाते हैं
गाथार्थ-कान्दर्प और आभियोग्य देव तथा देवियाँ आरण-अच्युत पर्यन्त ही हैं एवं लान्तव कल्प से ऊपर सम्मोह और किल्विषिक देव नहीं हैं ॥११३५॥
___ आचारवृत्ति-कन्दर्प का भाव कान्दर्प है । उसके योग से देव भी कान्दर्प कहलाते हैं अर्थात हँसी-मज़ाक़ आदि करनेवाले देव, आभियोग्य-वाहन जाति के देव तथा देवियाँ सोलहवें स्वर्गपर्यन्त ही होते हैं। इसी आगम से जाना जाता है कि देवियों का गमन अच्युत स्वर्ग के ऊपर नहीं है । लान्तव नामक स्वर्ग के ऊपर संमोह जाति के देव और किल्विषिक जाति के देव नहीं होते हैं। भण्डदेव अर्थात् श्वान के समान नित्य मैथुन सेवन करनेवाले देव सम्मोह कहलाते हैं तथा पटह, मुरज आदि बाजे बजानेवाले देव किल्विषिक कहलाते हैं।
लेश्याओं का स्वामित्व पूर्वक स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
गाथार्थ-रत्नप्रभा आदि सातों पृथिवियों में क्रम से कापोत, कापोत, कापोत-नील, नील, नील-कृष्ण, कृष्ण और परमकृष्ण लेश्या है ॥११३६॥
१.क आरणाच्युतकाल्पी याक् गमनागमनं च।
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