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[ मूलाचारे
ते सर्वे भवन्ति, इत्थिपुरिसा-स्त्रीपुरुषाः णपुंसगा-नपुंसकाश्चापि, वेदेहि-वेदवेदेषु वा। पूर्वोक्तानां शेषाः पंचेन्द्रियाः संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च ये तियंचो मनुष्यास्ते सर्वेऽपि स्त्रीपुंनपुंसकास्त्रिभिदैर्भवन्ति, पुनर्वेदग्रहणं द्रव्यवेदप्रतिपादनार्थ भागवेदस्य स्त्रीपुंनपुंसक ग्रहणेनैव ग्रहणादिति ॥११३२॥ ननु यथा तिर्यङ् मनुष्येषु सर्वत्र स्त्रीलिंगमुपलभ्यते किमेवं देवेष्वपि नेत्याह
आ ईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं।
तत्तो परं तु णियमा उववादो होइ देवाणं ॥११३३॥ नात्रोपपादकथनमन्याय्यं विषयभेदात्, देवेषु स्त्रीलिंगस्य भावाभावविषयककथनमेतत् नोपपादकथनं, आ-आङ यमभिविधौ गृह्यते ईसाणा-ईशानात्, कप्पो-कल्पात् उववादो-उपपादो, होइ-भवति, देवदेवी-देवदेवीनां देवानां देवीनां च, तत्तो ततस्तत्मादीशानात्परं तुध्वं सनत्कुमारादिषु उववादो-उपपाद उत्पत्तेः संभवः,होइ-भवति, देवाणं-देवानाम् आईशानात्कल्पादिति । किमुक्त भवति-भवनव्यन्तरज्योति केषु सोधर्मशानयोश्च कल्पयोर्देवानां देवीनां चोपपादः स्त्रीलिंगपुंल्लिगयोरुत्पत्तेः संभवः परेषु कल्पेषु सनत्कुमारादिषु देवानामेवोत्पत्तेः संभवो न चात्र स्त्रीलिंगस्योत्पत्तेः संभव इति ॥११३३॥ अथ स्त्रीलिंगस्या ईशानादुत्पन्नस्य कियद्रगमनमित्याशंकायामाह
जावदु आरणअच्चुद गमणागमणं च होइ देवीणं । तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थि से गमणं ॥११३४॥
स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिंग-तीनों वेद होते हैं। गाथा में पुनः जो वेद का ग्रहण है वह द्रव्य वेद के प्रतिपादन के लिए है, क्योंकि भाववेद का तो स्त्री, पुरुष और नपुंसक के ग्रहण से ही ग्रहण हो जाता है।
जिस प्रकार से पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों में सर्वत्र स्त्रीलिंग उपलब्ध होता है क्या ऐसे ही देवों में भी है, उसे ही बताते हैं
___ गाथार्थ--देव और देवियों का जन्म ईशान स्वर्ग पर्यन्त होता है, इससे आगे तो नियम से देवों का ही जन्म होता है ।।११३.३।।
प्राचारवृत्ति -यहां पर उपपाद का कथन विषय-भेद की अपेक्षा से अन्याय्य नहीं है, न्याययुक्त ही है। यहाँ देवों में स्त्रीलिंग के भाव और अभाव का कथन करना मुख्य है, उपपाद का कथन मुख्य नहीं है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान स्वर्ग तक देव और देवियों का उपपाद होता है। इससे ऊपर सनत्कुमार आदि स्वर्गों में देवों की ही उत्पत्ति सम्भव है, वहाँ देवांगनाओं की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।
यदि देवियां ईशान स्वर्ग तक ही उत्पन्न होती हैं तो उनका गमन कितनी दूर पर्यन्त है ? ऐसो आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-देवियों का गमनागमन आरण-अच्युतपर्यन्त होता है। इसके आगे तो नियम से उन देवियों का गमन नहीं है ॥११३४॥
१. क पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् मनुष्येषु ।
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