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[ मूलाचारे
कुतो यत:
जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वमहासुहं।
वोदरागसुहस्सेदे गंतभागंपि णग्धंदि ॥११४६॥ अंब-यच्च, कामसुहं-काममुखं विषयोत्थजीवप्रदेशाह्लादकारणं मनुष्यादिभवं, लोए-लोके तिर्यगर्वाधोभागेषु, जंच दिव्यमहासुहं-दिवि भवं दिव्यं दिव्यं च तन्महासुखं च दिव्यमहासुखं भवनाद्यच्युतान्तदेवोत्थं, वीवरागसुहस्स--वीतरागसुखस्य निर्मूलितमोहनीयादिकर्मकलंकस्य, एदे-एतानि तिर्यड मनुष्यदेवजनितानि सुखानि, पंतभागंपि-अनन्तभागस्यापि वीतरागसुखस्यानन्तराशिना भागे कृते यल्लब्धं तस्यानन्तभागस्यापि, णग्धंति-नार्घन्ति नाहन्ति सदृशानि न तानि तस्य मूल्यं वा नार्हन्ति । यतः सर्वाणि देवमनुष्यभोगभूमिजादिसर्वसुखानि वीतरागसुखस्यानन्तभागमपि नार्हन्ति, अतो निष्प्रतीचारेषु देवेषु महत्सुखं सर्वान् सप्रतीचारानपेक्ष्येति ।।११४६।।
स्पर्शरसो कामाविति व्याख्यातौ तत्र स्पर्शः कामो देवानामवगतो रसः कामो नाद्यापीत्युक्त तदर्थमाह
जदि सागरोवमाओ तदि वाससहस्सियाद आहारो।
पोहि दु उस्सासो सागरसमयेहि चेव भवे ॥११४७॥ जदि-यावत् यन्मात्र, सागरोवमाऊ-सागरोपमायुः यावन्मात्रः सागरोपमायुः, तदि-तावन्मात्रः
ऐसा क्यों ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ - लोक में जो काम-सुख हैं और जो दिव्य महासुख हैं वे वीतराग सुख के अनन्तवें भाग भी नहीं हो सकते ॥११४६॥
आचारवृत्ति-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्रूप लोक में जो मनुष्य आदि में उत्पन्न होनेवाला काम-सुख हैं, जीव के प्रदेशों में जो विषयों से उत्पन्न हुए आहलाद का कारणभत है एवं जो भवनवासी से लेकर अच्युत पर्यन्त देवों के होनेवाला दिव्य महासुख है वह, जिम्होंने मोहनीय कर्म कलंक का निर्मूल नाश कर दिया है ऐसे वीतरागी महापुरुषों के सुख की अपेक्षा (इन तिर्यंच, मनुष्य और देवों में उत्पन्न होनेवाला सुख) अनन्तवाँ भाग भी नहीं है। अर्थात् वीतराग के सुख में अनन्तराशि से भाग देने पर जो लब्ध हो वह अनन्तवाँ भाग हुआ। इन जीवों का सुख उतने मात्र के सदृश भी नहीं है अथवा उसके मूल्य को प्राप्त करने में ये सुख समर्थ नहीं हैं । चूंकि सभी देव, मनुष्य और भोगभूमिज आदि के सर्वसुख के अनन्तवें भाग भी नहीं हो सकते हैं, इस कारण कामसेवन रहित इन देवों में कामसेवन सहित सभी जीवों की अपेक्षा महान् सुख है।
स्पर्श और रस ये काम हैं ऐसा कहा है और उनमें से स्पर्श काम का देवों में बोध हो गया है। रस काम है इसका अभी तक बोध नहीं हुआ ऐसा पूछने पर उसी को कहते हैं
गाथार्थ जितने सागर की आयु है उतने हजार वर्षों में आहार होता है और जितने सागर आयु है उतने ही पक्षों में उच्छ्वास होता है ।।११४७॥
आचारवृत्ति-जिन देवों की जितने सागर प्रमाण आयु है उतने हजार वर्षों के बीत
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