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पर्याप्स्यधिकारः]
विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन षड्भेदा भवन्ति तथा पंचेन्द्रियाः संशिनोऽसंशिनः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्विकल्पा भवन्ति । एवमेते दश जीवसमासाः पूर्वोक्ताश्चत्वारः सर्व एते चतुर्दश जीवसमासा भवन्तीति ॥११६॥ गुणस्थानानि प्रतिपादयन्ननन्तरं सूत्रद्वयमाह
मिछादिट्ठी सासावणो य मिस्सो असंजदो चेव । देसविरदो पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो॥११६७॥ एत्तो अपुश्वकरणो अणियट्टी सहमसंपराओ य ।
उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य ॥११९८॥ मिथ्या वितथाऽसत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतकान्तविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकर्मोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयोऽथवा मिथ्या वितथं तत्र दष्टी रुचिः श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादृष्टयोऽनेकान्ततत्त्वपराजमुखाः । आसादनं सम्यक्त्वविराधनं सहासादनेन वर्तत इति सासादनो विनाशितसम्यग्दर्शनः, अप्राप्तमिथ्यात्वकर्मोदयजनितपरिणाम: मिथ्यात्वाभिमुख: । दृष्टिः श्रद्धा रुचिः एकार्थः समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासो
आचारवृत्ति-विकलेन्द्रिय-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय भौर चार इन्द्रिय, में से प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद होने से छह हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी दो भेद हैं। इनके भी पर्याप्त-अपर्याप्त भेद होने से चार भेद हो जाते हैं। इस प्रकार ये दश जीवसमास हुए। इन्हीं में पूर्वोक्त एकेन्द्रिय के चार भेद मिला देने से चौदह जीवसमास होते हैं।
गुणस्थानों का प्रतिपादन करते हुए दो सूत्र कहते हैं
गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, असंयत, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्त ये सात जानना। इससे आगे अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिजिन और अयोगिजिन ये सब चौदह गुणस्थान हैं ॥११६७-११९८॥
__ आचारवृत्ति—गुणस्थान चौदह हैं। उनके नाम हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिजिन और अयोगिजिन । प्रत्येक का लक्षण कहते हैं।
१. मिथ्यात्व-मिथ्या, वितथ या असत्य दृष्टि-श्रद्धान का नाम मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान इन पाँच भेदरूप मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुई है असत्य श्रद्धा जिनके वे मिथ्यादृष्टि हैं । अथवा मिथ्या, वितथ या असत्य में दृष्टि, रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय अर्थात् विश्वास है जिनको वे मिथ्यादृष्टि हैं जो अनेकान्त तत्त्व से विमुख रहते हैं।
२. सासादन-आसादना--सम्यक्त्व की विराधना के सह-साथ जो रहता है बड़ सासादन है,अर्थात् जिसने सम्यग्दर्शन का तो विनाश कर दिया है और मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न, हुए परिणाम को अभी प्राप्त नहीं है किन्तु मिथ्यात्व के अभिमुख किया है वह सासादन गुणस्थानवर्ती है।
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