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[ मूलाचारे
एकेन्द्रिया जीवाः पंचत्रकाराः पृथिवीकायादिवनस्पतिपर्यन्तास्ते च प्रत्येकं बादरसूक्ष्मभेदेन द्विप्रकारा एकैकशो बादराः सूक्ष्म व लोकस्यैकदेशे बादरा यतो वातवलये पृथिव्यष्टकं विमानपटलानि वाश्रित्य तिष्ठन्तीति सूक्ष्मैः पुनर्निरन्तरो लोकः, सूक्ष्माः सर्वस्मिन् लोके तं रहितः कश्चिदपि प्रदेशो नेति ॥ १२०४॥
यस्मात्-
अस्थि अनंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंक सुपउरा णिगोदवासं अमुचंता' ॥ १२०५॥
सन्ति विद्यन्तेऽनन्ता जीवास्ते यैः कदाचिदपि न प्राप्तस्त्रसपरिणामः द्वीन्द्रियादिस्वरूपं, भावकलंकप्रचुरा मिथ्यात्वादिकलुषिताः निगोदवासमत्यजन्तः सर्वकालम् । सूक्ष्मवनस्पतिस्वरूपेण व्यवस्थिता ये जीवास्तादृग्भूता अनन्ताः सन्तीति ॥१२०५ ॥
सर्वलोके तावत्तिष्ठन्ति किन्तु -
श्राचारवृत्ति - एकेन्द्रिय के पृथिवीकाय से लेकर वनस्पतिपर्यन्त पाँच भेद हैं । इन प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार हो जाते हैं । बादर जीव लोक के एकदेश में हैं क्योंकि ये वातवलयों में हैं, आठों पृथिवियों का एवं विमानपटलों का आश्रय लेकर ये रहते हैं तथा सूक्ष्म जीव इस सर्वलोक में पूर्णरूप से भरे हुए हैं, लोक का एक प्रदेश भी उनसे रहित नहीं है ।
क्योंकि
गाथार्थ - ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने त्रसों की पर्याय को प्राप्त नहीं किया है । भावकलंक की अधिकता से युक्त होने से वे निगोदवास को नहीं छोड़ते हैं ।। १२०५ ॥
श्राचारवृत्ति - ऐसे अनन्तजीव विद्यमान हैं जिन्होंने कभी भी द्वीन्द्रिय आदि रूप पर्याय नहीं प्राप्त की है । ये मिथ्यात्व आदि भावों से कलुषित हो सर्वकाल निगोदवास नहीं छोड़ते हैं तथा जो सूक्ष्म वनस्पतिकायिकरूप से व्यवस्थित उस प्रकार से अनन्त हैं ।
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विशेषार्थ - निगोदके दो भेद हैं – नित्यनिगोद और चतुर्गतिनिगोद या इतरनिगोद । जिसने कभी पर्याय प्राप्त कर ली हो उसे चतुर्गतिनिगोद कहते हैं और जिसने अभी तक कभी भी पर्याय नहीं पायी हो अथवा जो भविष्य में भी कभी सपर्याय नहीं पायेगा उसे नित्यनिगोद कहते हैं। क्योंकि नित्य शब्द के दोनों ही अर्थ होते हैं - एक अनादि और दूसरा अनादि-अनन्त, इसलिए इन दोनों ही प्रकार के जीवों की संख्या अनन्तानन्त है ।
गाथा में आया हुआ प्रचुर' शब्द प्रायः अथवा अभीक्ष्य अर्थ सूचित करता है । अतएव छह मास आठ समय में छह सौ आठ जीवों के उसमें से निकलकर मोक्ष चले जाने पर भी कोई बाधा नहीं आती ।
ये सर्वलोक में रहते हैं किन्तु -
१. गोम्मटसार में 'ण मुंचति' ऐसा पाठ है ।
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२. गोम्मटसार, जीवकाण्ड की गाथा १६७ का भावार्थ ।
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