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पर्याप्त्यधिकारः]
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सिद्धिक्षेत्रे चाभावः, यद्यपि पंचेन्द्रिया ऊधिस्तिर्यग्लोकेषक्ताः सामान्येन तथापि त्रयाणां लोकानामसंख्यातभागे तिष्ठन्तीति, कैवल्यापेक्षया पुनर्लोकस्य संख्यातभागेऽसंख्यातभागे, सर्वलोके चासंज्ञिपंचेन्द्रियेष्वपि तथैवेति ॥१२०३॥ पुनरप्येकेन्द्रियाणां विशेषमाह
एइंदियाय जीवा पंचविधा बादरा य सुहमा य। देसेहि बादरा खलु सुहुमेहि णिरंतरो लोओ॥१२०४॥
यद्यपि पंचेन्द्रिय जीव ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्लोक में कहे गये हैं तो भी यह सामान्य से कथन है, क्योंकि वे तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में रहते हैं किन्तु केवली समुद्घात की अपेक्षा से वे लोक के संख्यातवें और असंख्यातवें भाग में रहते हैं, सम्पूर्ण लोक भी उनका क्षेत्र है। उसी प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय लोक के असंख्यातवें भाग में अर्थात् तिर्यग्लोक के संख्यात भाग में रहते हैं, ऐसा भी समझना चाहिए।
पुनः एकेन्द्रियों की विशेषता बतलाते हैं
गाथार्थ-पाँचों प्रकार के एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म होते हैं। बादर जीव लोक के एक देश में हैं और सूक्ष्मजीवों से लोक अन्तरालरहित है ॥१२०४॥
भवसिद्धिगस्स चोद्दस एक्कं इयरस्स मिच्छगुणठाणं ।
उवसमसम्मत्तेसु य भविरदपहुदि च अट्ठव ॥ अर्थ-भव्यसिद्धिक जीवों में चौदह गुणस्थान हैं । अभव्यसिद्धिक में एक गुणस्थान है । उपशम सम्यक्त्व में अविरत से लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान होते हैं।
तह वेवयस्स भणिया चउरो खलु होंति अप्पमत्ताणं ।
खाइयसम्मत्तम्हि य एयारस जिणवाहिट्ठा ॥ अर्थ-वदकसम्यक्त्व में चौथे से लेकर अप्रमत्तपर्यन्त चार होते हैं एवं क्षायिकसम्यक्त्व में चौथे से लेकर अयोगी तक ग्यारह गुणस्थान हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
मिस्से सासणसम्मे मिच्छादिठिम्हि होइ एक्केक्कं ।
सण्णिस्स वारस खलु हवदि असण्णीसु मिच्छत्तं ॥ अर्थ-मिश्र, सासादन और मिथ्यादृष्टि में अपने-अपने एक-एक गुणस्थान हैं। संशो के बारह गुणस्थान हैं एवं असंज्ञी में मिथ्यात्व नाम का एक गुणस्थान है।
आहाररस्स य तेरस पंचेव हवंति जाण इयरस्स ।
मिच्छासासण अविरद सजोगी अजोगीय बोद्धव्वा ।। अर्थ-आहारमार्गणा में तेरह गुणस्थान हैं । अनाहार में मिथ्यात्व, सासादन, अविरति, सयोगी और अयोगी ये पाँच गुणस्थान होते हैं । १. तथा विकलेन्द्रिया लोकस्यासंख्यातभागे तिर्यग्लोकस्य च संख्यातभागे वा संक्षिपञ्चेन्द्रियश्च नर्थवेति ।
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