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वाधिकार
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तेहिं असंखेज्जगुणा देवा खल होंति वाणवेतरिया।
तेहिं असंखेज्जगुणा देवा सव्वेवि जोदिसिया ॥१२२३॥ देवगती देवा देव्यश्च सर्वस्तोकाः सौधर्मादिविमानवासिनः असंख्यातश्रेणिमात्रा धनांगुलतृतीयवर्गमुलमात्राः साधिकाः श्रेणयः १/३ । तेभ्यश्चासंख्यातगुणा भवनेषु दशविधा भवनवासिनः असंख्याताः श्रेणयः घनांगुलप्रथमवर्गमूलमात्राः श्रेणयः १/१ । तेभ्यश्चासंख्यातगुणाः स्फुटमष्टप्रकारा व्यन्तराः प्रतरासंख्यातभागमात्राः संख्यातप्रतरांगुलैः श्रेणे गे हृते यल्लब्धं तावन्मात्राः श्रेणयः १/१/४ । तेभ्यश्च पंचप्रकारा ज्योतिष्का असंख्यातगुणाः प्रतरासंख्यातभागमात्राः पूर्वोक्तसंख्यागुणितरसंख्येयप्रतरांगुलैः श्रेणे गे हृते यल्लब्धं तावन्मात्राः श्रेणयः १/१/४/९ ।
अथवा सर्वतः स्तोकाः सर्वार्थसिद्धिदेवाः संख्याताः । ततो विजयवैजयन्तजयन्तापराजितनवानुत्त. रस्था असंख्यातगुणाः पल्योपमासंख्यातभागप्रमितास्ततो नव ग्रेवेयका आनतप्राणतारणाच्युताश्चासंख्यातगुणाः पल्योपमासंख्यातभागप्रमिताः, ६ । ततः शतारसहस्रारदेवा असंख्यातगुणाः श्रेणिचतुर्थवर्गमूलखण्डितश्रेण्येकभागमात्राः १/४ । ततः शुक्रमहाशुक्रदेवा असंख्यातगुणा: श्रेणिपंचमवर्गमूलखण्डितश्रेण्येकभागभवनवासियों में दश प्रकार के देव हैं। उनसे असंख्यातगुणे व्यंतर देव होते हैं। उनसे असंख्यातगुणे सभी ज्योतिष्क देव हैं ।।१२२२-२३॥
आचारवत्ति-देवगति में सौधर्म आदि स्वर्ग के विमानवासी देव और देवियाँ सब से थोड़े हैं जो कि असंख्यात श्रेणी मात्र हैं अर्थात् घनांगुल के तृतीय वर्गमूलमात्र कुछ अधिक श्रेणी प्रमाण हैं जिनकी संदृष्टि १/३ है। उनसे असंख्यात गुणे भवनों में रहने वाले दस प्रकार के भवनवासी देव हैं । अर्थात् ये असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं । ये श्रेणियाँ घनांगल के प्रथम वर्ग मूल मात्र हैं जिनकी संदृष्टि १/१ है। उनसे असंख्यातगुणे अष्ट प्रकार के व्यन्तर देव हैं। ये प्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र हैं अर्थात् श्रेणी में संख्यात प्रतरांगुलों का भाग देने पर जो लब्ध हो उतने मात्र श्रेणी प्रमाण हैं। इनकी संदृष्टि भी १/१/४ है। पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव इनसे असंख्यातगुणे हैं । अर्थात् ये भी प्रतर के अससंख्यातवें भाग मात्र हैं जो कि पूर्वोक्त संख्या से गणित असंख्यात प्रतरांगुलों से श्रेणी में भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने मात्र श्रेणी प्रमाण हैं जिनकी संदृष्टि १/१/४/६ है।
किन्तु सबसे कम सर्वार्थसिद्धि के देव हैं जो कि संख्यात हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित अनुत्तरों के देव और नव अनुदिशों के देव सर्वार्थसिद्धि के देवों से असंख्यातगणे हैं अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इनसे असंख्यातगुणे नव ग्रैवेय और आनत, प्राणत, आरण और अच्युत के देव हैं। अर्थात् ये असंख्यातगुणा भी पल्योपम के असंख्यात वे भाग प्रमाण हैं जिसकी संदृष्टि ६ है। इससे असंख्यातगुणे शतार और सहस्रार स्वर्ग के देव हैं जो कि श्रेणी के चतुर्थ वर्गमूल से भाजित श्रेणी के एक भागमात्र हैं जिनकी संदृष्टि १/४ है। शुक्र-महाशुक्र के देव इनसे असंख्यात गुणे हैं। ये श्रेणी के पंचम
१. क पूर्वोक्तसंख्यातगुणहीन।
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