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पर्याप्यधिकारः
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भवन्ति, इत्येवं सर्वासु मार्गणासु योज्यम् । तद्यथा - एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपंचेन्द्रियेषु सर्वेषु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेकमेव, संज्ञिषु चतुर्दशापि गुणस्थानानीति सर्वत्र संबन्ध: । पृथिवीकाया कायतेजः कायवायुका वनस्पतिकायेषु मिथ्यादृष्टिसंज्ञकमेकं द्वीन्द्रियाद्यसंज्ञिपर्यन्तत्र सेष्वेकमेव मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं, संज्ञिषु त्रसेषु चतुर्दशापि, सत्य मनोयोगासत्यमृषामनोयोग सत्यवाग्योगा सत्यमृषावाग्योगेषु मिथ्यादृष्ट्यादिस योगपर्यन्तानि, मुषामनोयोगसत्य मृषामनोयोगमृषावाग्योग सत्य मृषावाग्येोगेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनि क्षीणकषायान्तानि, मौदारिककाययोगे मिथ्यादृष्टद्या दिसयोगान्तानि, औदारिक मिश्रकार्मणकाययोगे मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतसम्यग्दृष्टिसयोगकेवलिसंज्ञकानि चत्वारि, वैक्रियिककाययोगे मिध्यादृष्ट्याद्यसंयतांतानि, वैक्रियिकमिश्र काययोगे तान्येव सम्यङ मिध्यादृष्टिरहितानि, आहाराहारमिश्रयोगयोरेकं प्रमत्तगुणस्थानम् । पुंवेदे भावापेक्षया स्त्रीवेदे नपुंसक वेदे च मिथ्यादृष्ट्याद्य निवृत्तिपर्यन्तानि स्त्रीनपुंसकयोद्र व्यापेक्षया मिथ्यादृष्ट्या दिसंयतान्तानि, पुंल्लिंगे सर्वाणि, क्रोधमानमायासु तान्येव लोभकषायेषु सूक्ष्म साम्परायाधिकानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंगज्ञानेषु मिथ्यादृष्टिसासादनसंज्ञके द्वे, मतिश्रुतावधिज्ञानेषु असंयतसम्यग्दृष्टया दिक्षीणकषायान्तानि मन:पर्ययज्ञाने प्रमत्तादि
कब लेना चाहिए। तदनुसार - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और अस ज्ञी पंचेन्द्रिय इन सभी में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही है । स ज्ञी पंचेन्द्रियों में चौदहों गुणस्थान होते हैं । पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पाँच स्थावरकायों में मिथ्यादृष्टि नाम का एक ही गुणस्थान है । द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसों में भी मिथ्यात्व गुणस्थान ही है। संज्ञी त्रसकाय के चौदहों हैं ।
सत्यमनोयोग ओर असत्य मृषामनोयोग ( अनुभय) में, उसी तरह सत्यवचनयोग और असत्य मृषावचनयोग (अनुभव ) इन चारों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीपर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं । असत्यमनोयोग और सत्यमृषामनोयोग (उभय) में तथा असत्यवचनयोग और सत्यमृषावचनयोग (उभय) में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषायपर्यन्त बारह गुणस्थान होते हैं । औदारिकाययोग में मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगी पर्यन्त गुणस्थान हैं । औदारिकमिश्र और कार्मणका योग में मिथ्यादृष्टि, सासादन, असं यतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं । वैक्रियिककाययोग में मिथ्यादृष्टि से असं यतपर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं और वैक्रियिकमिश्रकाययोग में सम्यग्मिथ्यादृष्टिरहित ये ही तीन होते हैं। आहार और आहारमिश्रयोग में एक प्रमत्त गुणस्थान ही होता है ।
पुंवेद में तथा भाववेद की अपेक्षा स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में मिथ्यादृष्टि से लेकर निवृत्तिकरणपर्यन्त नौ गुणस्थान होते हैं । द्रव्य की अपेक्षा से स्त्री और नपुंसक वेद में अर्थात् द्रव्यस्त्री और द्रव्यनपुंसकवेद वालों में मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतास यतपर्यन्त पाँच गुणस्थान होते हैं । पुरुषवेद में सभी गुणस्थान होते हैं ।
क्रोध, मान और माया इन तीन कषायों में वे ही अर्थात् मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिपर्यन्त नौ गुणस्थान होते हैं और लोभकषाय में सूक्ष्मसाम्पराय अधिक अर्थात् दस गुणस्थान होते हैं ।
मति- अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो ही गुण
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