Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 356
________________ ३२२ ] [ मूलाचारे शंघासु पुनर्न कमनुष्यदेवगतिषु द्वौ द्वौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती जीवसमासो भवतः न तासु तृतीयं सम्भवति, एवं सर्वष मार्गणास्थानेषु इन्द्रियादिषु एतानि जीवसमासस्थानानि परमागमानुसारेणानेतन्यान्यन्वेषितव्यानीति। तद्यथा--एकेन्द्रियेषु बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ताश्चत्वारो जीवसमासाः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु पर्याप्तापर्याप्ती द्वौ स्वकीयो जीवसमासौ, पंचेन्द्रियेषु संज्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताश्चत्वारो जीवसमासाः, पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजःकायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिकेषु एकैकशो बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ताश्चत्वारस्त्रसकायिकेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ यसंज्ञिनः प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्ता दस जीवासमासाश्चतुषु मनोयोगेषु सत्यमनो हैं, इनमें तीसरा सम्भव नहीं है। इसी प्रकार सभी इन्द्रिय आदि मार्गणास्थानों में ये जीव. समासस्थान परमागम के अनुसार लगा लेना चाहिए अर्थात् सभी मार्गणाओं में जीवसमास का अन्वेषण करना चाहिए। उसे ही कहते हैं एकेन्द्रिय में बादर-सूक्ष्म और इनके पर्याप्त-अपर्याप्त ऐसे चार जीवसमास हैं। दौ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त-अपर्याप्त ये दो-दो जीवसमास हैं तथा पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी एवं उनके पर्याप्त-अपर्याप्त ऐसे चार जीवसमास हैं। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में एक-एक के बादर-सूक्ष्म और पर्याप्त-अपर्याप्त ये चार-चार जीवसमास हैं। त्रसकायिक में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो जीवसमास होने से सब मिलाकर दस जीवसमास हो जाते हैं। उवसमवेदयखइये सम्मत्ते जाण होंति दो दो दु । सम्मामिच्छत्तम्मिय सपणी खलु होइ पज्जत्तो॥ अर्थ-उपशम, वेदक, क्षायिक सम्यक्त्व में दो-दो तथा सम्यग्मिथ्यात्व में एक संज्ञी पर्याप्त जीव. समास है। पज्जत्तापज्जत्ता सासणसम्मम्हि सत्त णायम्वा । मिच्छत्ते चोइसया दो बारस सणि इदरम्हि ॥ अर्थ-सासादन में सूक्ष्म अपर्याप्त को छोड़कर छह अपर्याप्त और एक सैनी पर्याप्त, ऐसे सात जीव समास हैं। मिथ्यात्व में चौदह, संज्ञी में दो और असंज्ञी में बारह जीवसमास होते हैं। सुहमवगं वज्जित्ता से से पज्जत्तगा य छच्चेव। सण्णीदो पज्जत्त पि एव सत्तव सासणे णेया ॥ अर्थ-सासादन गुणस्थान में सूक्ष्मद्विक-पर्याप्त-अपर्याप्त को छोड़कर शेष छह अपर्याप्त. और संज्ञी पर्याप्तक, ये सात जानना। आहारम्हि य चोइस इदरम्हि या अट्ठ अपरिपुण्णा दु । जीवसमासा एदे गइयादीमग्गणे भणिया । अर्थ-आहारमार्गणा में चौदह, अनाहारक में आठ अर्थात सात अपर्याप्त और एक संज्ञी पर्याप्त ऐसे आठ जीवसमास होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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