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[ मूलाचारे ततः सर्वोत्कृष्टनैवेयकादूवं परेषु नवानुत्तरादिषु सौधर्मादिषु च निग्रन्थानां सवसंगपरित्यामिनां तपोदर्शनशानचरणयुक्तानामचरमदेहिनां शुभपरिणामिनां निश्चयेनोपपादः सर्वार्थसिद्धि यावत । सर्वार्थसिद्धिमन्तं कृत्वा सर्वेषु सौधर्मादिषूत्पद्यन्त इति यायत् ॥११७८॥ अथ देवा आगत्य क्वोत्पद्यन्त इत्याशंकायामाह
प्राईसाणा देवा चएत्त एइंदिएत्तणे भन्जा।
तिरियत्तमाणुसत्ते भयणिज्जा जाव सहसारा ॥११७६॥ भवनवासिनमादि कृत्वा आ ईशानाद् ईशानकल्पं यावद् देवाश्च्युत्वा एकेन्द्रियत्वेन भाज्याः कदाचिदार्तध्यानेनागत्य पृथिवीकायिकाप्कायिकप्रत्येकवनस्पतिकायिकेषु बादरेषु पर्याप्तेषूत्पद्यन्ते परिणामवशेनान्येषु पंचेन्द्रियपर्याप्ततिर्यङ मनुष्येषु भोगभूमिजादिवजितेषु च तत ऊवं सहस्रारं यावद् देवाश्च्युत्वा तिर्यक्त्वेन मनुष्यत्वेन च भाज्याः नेते एकेन्द्रियेषूत्पद्यन्ते पुनस्तिर्यग्ग्रहणान्नारकदेवविकलेन्द्रियासंज्ञिसूक्ष्मसर्वपर्याप्ततेजो. वायुभोगभूमिजादिषु सर्वे देवा नोत्पद्यन्त इति च द्रष्टव्यम् ॥११७६॥ उपरितनानामागतिमाह
तत्तो परं तु णियमा देवावि अणंतरे भवे सव्वे।
उववज्जति मणुस्से ण तेसि तिरिएसु उववादो ॥११८०॥ प्राचारवृत्ति--उस ऊर्ध्व अवेयक से ऊपर नव अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सर्वसंग से परित्यागी निर्ग्रन्थ लिंगधारी, दर्शनज्ञानचारित्र और तप से युक्त अचरमदेही, शुभपरिणाम वाले मुनियों का जन्म होता है। अर्थात् निर्ग्रन्थ भावलिंगी मुनि सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्पन्न होते हैं।
देव आकर कहाँ उत्पन्न होते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-ईशान स्वर्ग तक के देव च्युत होकर एकेन्द्रियरूप से वैकल्पिक हैं और सहस्रार पर्यन्त के देव तिथंच और मनुष्य रूप से वैकल्पिक हैं ।।११७६॥
प्राचारवृत्ति-भवनवासी से लेकर ईशान स्वर्ग तक के देव वहाँ से च्युत होकर कदा. चित् आर्तध्यान से पथिवीकायिक जलकायिक, और प्रत्येकवनस्पतिकायिक बादर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं। तथा परिणाम के वश से अन्य पर्यायों में भी अर्थात् पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तिर्यंच-मनुष्यों में उत्पन्न हो जाते हैं। किन्तु वे देव भोगभूमिज आदि मनुष्यों या तिर्यंचों में जन्म नहीं लेते हैं। उसके ऊपर तीसरे स्वर्ग से लेकर सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग तक के देव च्युत होकर तियंच या मनुष्यों में जन्म लेते हैं । अर्थात् ये देव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। पुनः "तिर्यक्त्व' शब्द को गाथा में लेने से ऐसा समझना कि नारकी, देव, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, सर्व अग्निकायिक, वायुकायिक, भोगभूमिज आदि स्थानों में सभी देव उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा समझ लेना। तात्पर्य यह है कि ईशान स्वर्ग तक के देव मरकर एकेन्द्रिय पृथिवी, जल और प्रत्येकवनस्पति में जन्म ले सकते हैं । तथा बारहवें स्वर्ग तक के देव पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तियंचों में भी हो सकते हैं।
ऊपर के देवों का जन्म कहाँ तक होता है. उसे ही बताते हैं
गाथार्थ-उसके परे सभी देव नियम से अनन्तर भव में मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं। उनका तिर्यंचों में जन्म नहीं होता है ।।११८०॥
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