________________
३०० ]
प्रविरुद्ध संकमणं असण्णिपज्जत्तयाण तिरियाणं । माणुसतिरिक्खसुरणारएसु ण दु सव्वभावेसु ॥। ११६६ ॥
असंज्ञिपर्याप्तकानां तिरश्चां संक्रमणं गमनमविरुद्ध न विरोधमुपयाति क्व मनुष्यतिर्यक्सुरनारकेषु चतसृषु गतिष्वपि व्रजन्ति न तु सर्वभावेषु नैव सर्वेषु नारकतिर्यङ मनुष्यदेवपर्यायेषु यतः प्रथमायामेव पृथिव्यामुत्पद्यन्ते संज्ञिनस्तथा देवेषु भवनवासिव्यंतरज्योतिष्केषूत्पद्यन्ते नान्यत्र तथा भोगभूमिजेषु तत्प्रतिभागजेष्वन्येष्वपि पुण्यवत्सु तिर्यङ मनुष्येषु' नोत्पद्यन्ते ॥११६६ ॥
अथासंख्यातायुषः केभ्य आगच्छन्तीत्याह
खादीदाओ खलु माणुसतिरिया दु मणुयतिरिये हि । खिज्ज आउहि दुणियमा सण्णीय आयंति ॥ ११७० ॥
संख्यातीतायुषः भोगभूमिजा भोगभूमिप्रतिभागजाश्च मनुष्यस्तियंच: संख्यातायुष्केभ्यो मनुष्यतिर्यग्भ्यः संज्ञिभ्योऽपि नियमेनायान्ति व्यक्तमेतन् नान्यत्र दानानुमोदोऽदत्तदानफलं च यत इति ॥ ११७०॥
गाथार्थ - असैनी पर्याप्तक तिर्यंचों का मनुष्य तिर्यंच, देव और नरक इन चारों में आना अविरूद्ध है किन्तु उनकी सभी पर्यायों में नहीं ।। ११६६ ॥
[ मूलाचारे
आचारवृत्ति - असंज्ञी पर्याप्तक तिर्यंच जीव चारों ही गतियों में जाते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है, किन्तु वे उनकी सभी पर्यायों में नहीं जाते हैं । अर्थात् असं नी जीव नरकों में पहली पृथिवी में ही उत्पन्न होते हैं, आगे नहीं; देवों में से भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों ही उत्पन्न हो सकते हैं, वैमानिकों में नहीं; तथा भोगभूमिज, भोगभूमिप्रतिभागज व अन्य भी पुण्यवान मनुष्य तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं ।
असंख्यातवर्ष आयुवाले कहाँ से आते हैं ? उसे ही बताते हैं
गाथार्थ—– असंख्यात वर्ष आयुवाले मनुष्य और तियंच जीव संख्यात वर्षायुवाले सैनी मनुष्य और तिर्यंच पर्याय से ही आते हैं ॥ ११७० ॥*
Jain Education International
आचारवृत्ति - भोगभूमिज और भोगभूमिप्रतिभागज मनुष्य और तिर्यंच असंख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं । कर्मभूमिज व कर्मभूमिप्रतिभागज मनुष्य संख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं। संख्यात वर्ष आयुवाले सैनी तियंच व मनुष्य ही मरकर असंख्यात वर्ष की आयु वालों में जन्म लेते हैं, अन्य नहीं । क्योंकि वे दान की अनुमोदना से और दिये हुए दान के फल से ही वहाँ जाते हैं । अर्थात् दान की अनुमोदना से और दान देने के फल से ही कर्मभूमिज तियंच या मनुष्य भोगभूमि में जन्म लेते हैं ।
१. क मनुष्यतिक्षु
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार में यह गाथा अधिक है
रियेसु पढमणिरये तिरिए मणुएस कम्मभूमीसु । होणेसु य उप्पली अमराणं भवणावेंतरेसु तथा ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org