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समयसाराधिकारः
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कालप्रमाणं परमसूक्ष्म: समयः अणोरण्वंतरव्यतिक्रम: काल: समयः, जघन्ययुक्तासंख्यातमात्रा समया आवलीनाम प्रमाणम्, 'असंख्यातावलयः कोटिकोटीनामुपरि यत्प्रमाणं स उच्छवासः, सप्तभिरुच्छवासैः स्तवः, सप्तभिः स्तवैर्लवाः, अष्टत्रिशल्लवानामर्द्धलवा च नाडी, द्वे नाड्यो मुहूर्तः, त्रिशन्मुहूत्तै दिवस रात्रिः, इत्येवमादिकालप्रमाणम् । भावप्रमाणं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्षाणि। एवं प्रमाणसूत्र व्याख्यातमिति ॥११२८॥ स्वामित्वेन योगस्य स्वरूपमाह
"वेइंदियादि भासा भासा य मणो य सण्णिकायाणं ।
एइंदिया य जीवा अमणाय अभासया होंति ॥११२६॥ कायवाङमनसां निमित्तं परिस्पंदो जीवप्रदेशानां योगस्त्रिविधः कायवाङ मनोभेदेन ।वेईदियादिद्वीन्द्रियादीनां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणाम् असंज्ञिपंचेन्द्रियाणां च भासा--भाषा वचनव्यापारः। भासायभाषा च,मणोय -मनश्च, सण्णिकायाणं-संज्ञिकायानां पंचेन्द्रियाणां संज्ञिनां भाषामनोयोगी भवतः कायश्च । एइंदिया य–एकेन्द्रियाश्च पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजःकायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिका जीवाः, अमणा य-अमनस्काः, अभासया--अभाषकाः, होंति-भवन्ति ते काययोगा इत्यर्थः । संज्ञिनो जीवा काय
कालप्रमाण-परमसूक्ष्म अर्थात् सबसे अधिक सूक्ष्म काल समय है। एक अणु को दूसरे अणु के उल्लघंन करने में जितना काल लगता है उसे समय कहते हैं। जघन्य युक्तासंख्यातमात्र समय को आवली कहते हैं। 'संख्यात कोड़ाकोड़ी आवली का जो प्रमाण है उसे उच्छ्वास कहते हैं । सात उच्छ्वासों का एक स्तव होता है । सात स्तव का एक लव होता है। साढ़े अड़तीस लवों की एक नाली या घटिका होती है। दो नाली का एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त का एक दिन-रात होता है। इत्यादिरूप से और भी काल का प्रमाण जान लेना चाहिए।
भावप्रमाण-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये भावप्रमाण हैं। इनके परोक्ष और प्रत्यक्ष ये दो भेद हैं । इस प्रकार से प्रमाणसूत्र का व्याख्यान हुआ।
स्वामी की अपेक्षा योग का स्वरूप कहते हैं।
गाथार्थ-द्वीन्द्रिय आदि जीवों के भाषा होती है। संज्ञी जोवों के भाषा और मन होते हैं और एकेन्द्रिय जीव मन और भाषा रहित होते हैं ॥११२६॥
आचारवृत्ति-काय, वचन और मन के निमित्त से जीव के प्रदेशों के परिस्पन्दन को योग कहते हैं। उसके मन-वचन-काय की अपेक्षा से तीन भेद हो जाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के भाषा या वचन-व्यापार अर्थात् वचनयोग होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के वचनयोग और मनोयोग होते हैं तथा काययोग तो हरेक (संसारी के है ही। एकेन्द्रिय-पृथिवीकयिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकाधिक जीव वचनयोग और मनोयोग से रहित होते हैं अर्थात् इनके मात्र काययोग होता है। तात्पर्य यह है कि संज्ञी जीवों के काययोग, वचनयोग और मनोयोग ये तीनों होते हैं। द्वीन्द्रिय
जीव
१. क संख्यातावल्यः। २. क वेइंदिया य। ३. टिप्पणी पाठ के अनुसार संख्यात शब्द रखा है।
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