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[ मूलाचारे
असी दिसद - अशीत्यधिकं शतं विगुणं द्विगुणं द्वाभ्यां गुणितं षष्ट्यधिकत्रिशतप्रमाणं भवति द्वीप जम्बूद्वीप विष्कंभयोजनलक्षं प गृह्यते सर्वाभ्यन्तरान्यवर्त्मपरिधिप्रमाणानयननिमित्तमुभयोः पार्श्वयोविंशोधनमशीतिशतद्विगुणस्य लक्षयोजनप्रमाणात्तस्माद् द्वीपाद् तद्विसृष्टं रहितं क्रियते तस्मिन् कृते शेषो द्वीप विशेष इत्युच्यते तस्य द्वीपविशेषस्य वर्ग. क्रियते स च वर्गोदशगुणः क्रियते तस्य मूलं षष्ट्या विभाजितं भक्त दिनमानातं नवभिर्गुणितं " दिनार्धशब्देन नव मुहूर्ताः परिगृह्यन्ते" । सर्वाभ्यन्तरपरिधिषष्टिमुहूर्ते भ्रमति मार्तण्डोऽतः षष्टिभिर्भागो मध्याह्न भवति नवभिर्मुहूर्ते रयोध्यायां नवगुणकारः । एवं कृते च यल्लब्धं परिमाणं पूर्वोक्तं चक्षुषो विषयो भवति आषाढमासे सर्वाभ्यन्तरवर्त्मनि मिथुनावसाने स्थितस्यादित्याध्वनो ग्रहणमिति ।। ११०० ।।
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आचारवृत्ति -- एक सौ अस्सी को दो से गुणा करने से तीन सौ साठ हो जाते हैं । बूद्वीप or frontभ एक लाख योजन है, उसे ग्रहण करना । पुनः सर्व अभ्यन्तर अन्य मार्ग की परिधि को निकालने के लिए उभयपार्श्व का शोधन करना अर्थात् एक लाख में तीन सौ साठ को घटा देना । शेष द्वीप के लिए विशेष अर्थात् निन्यानवे हज़ार छह सौ चालीस का वर्ग करके पुनः उसे दश से गुणित करना । पुनः उसका वर्गमूल निकालकर उसमें साठ का भाग देकर दिनार्धमान अर्थात् नव मुहूर्त से गुणित कर देना । अर्थात् सूर्य अभ्यन्तर परिधि को साठ मुहूर्त में पूरा करता है अत: साठ से भाग देकर पुनः मध्याह्न में अयोध्या पर आ जाता है अतः नव मुहूर्त से गुणा करना चाहिए। ऐसा करने से जो संख्या लब्ध होती है चक्षु इन्द्रिय का उतना विषय होता है ।
* इस स्थान पर गाथा बदली हुई है
तिणिसट्ठिविरहिय नक्खं वसमूलताडिदे मूलं । गवगुणिदे सट्ठिहिदे च खुपफासस्स अद्धाणं ॥ अर्थ-तीन सौ साठ कम एक लाख योजन जम्बूद्वीप के विष्कम्भ का वर्ग करना, उसे दश गुणा करके वर्गमूल निकालना । इससे जो राशि उत्पन्न हो उसे नव का गुणा करके साठ का भाग देने से चक्षुरिन्द्रिय का विषय होता है । अर्थात् सूर्य का चार क्षेत्र पाँच सौ बारह योजन प्रमाण है । उसमें तीन सौ बत्तीस योजन तो लवणसमुद्र में है और शेष एक सो अस्सी योजन जम्बुद्वीप में है । इसलिए जम्बूद्वीप के दोनों भाग से तीन सौ साठ योजन क्षेत्र को छोड़कर बाकी निन्यानवे हज़ार छह सौ चालीस योजन प्रमाण जम्बूद्वीप के विष्कम्भ की परिधि करणसूत्र के अनुसार तीन लाख, पन्द्रह हजार नवासी योजन होती है । इस अभ्यन्तर परिधि को एक सूर्य अपने भ्रमण द्वारा साठ मुहूर्त दो दिन में समाप्त करता है और निषध गिरि के एक भाग से दूसरे भाग तक की अभ्यन्तर वीथी को अठारह मुहूर्त में समाप्त करता है । इसके बिल्कुल बीच में अयोध्यानगरी पड़ती है । इस अयोध्यानगरी के बीच में बने हुए अपने महल के ऊपरी भाग से भरत आदि चक्रवर्ती निषधगिरि के ऊपर अभ्यन्तर में उदय होते हुए सूर्य के भीतर के जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं । और निषेधगिरि के उस उदयस्थान से अयोध्या पर्यन्त उक्त रीति से सूर्य के भ्रमण करने में नव मुहूर्त लगते हैं क्योंकि कर्क संक्रान्ति को यहाँ १२ मुहूर्त की रात्रि और १८ मुहूर्त का दिन हुआ करता है। अतः साठ मुहूर्त में इतने क्षेत्र पर भ्रमण करता है तो नव मुहूर्त में कितने क्षेत्र तक भ्रमण करेगा, ऐसा त्रैराशिक करने से फलराशि परिधि प्रमाण और इच्छा राशि नव गुणाकार होती है । उसमें प्रमाण राशि साठ का भाग देने से चक्षु इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ से कुछ अधिक निकलता है । तात्पर्य यह है कि चक्रवर्ती अधिक से अधिक इतनी दूर तक के पदार्थ को चक्षु द्वारा जान लेते हैं ।
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