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जमनारभावनाधिकारः]
गोपुरं तुंगं नमरस्म महद्वारमुत्तुङ्गकूटं यथासंख्येन संबंधः । धृत्यतिशयितनिश्चितमतिरेव प्राकारो यत्र नगरे तत्तयाभूतं तथा चारित्रमेव गोपुरमुत्तुंगं यत्र तच्चारित्रगोपुरोत्तुंगं ; क्षान्तिरुपशमः सूकृतं धर्मः, क्षान्तिसुकृते कपाटे यस्य तत् क्षान्तिसुकृतकपाटमथवा क्षान्तिरेव सुयंत्रितकपाटं तत्र, तपोनगरं, संयमो द्विप्रकार आरक्षःकोद्रपालो यत्र तत्संयमारक्षं इन्द्रियसंयमप्राणसंयमाभ्यामारक्षकाभ्यां पाल्यमानमिति ॥८७६।। कथं तद्रक्ष्यत इत्याशंकायामाह--.
रागो बोसो मोहो इंदियचोरा य उज्जदा णिच्चं ।
ण च यंति पहंसेतुं सप्पुरिससुरक्खियं णयरं ॥८८०॥ यद्यपि तन्नगरं प्रध्वंसयितुं विनाशयितुमुद्यताः सर्वकाल रागद्वेषमोहेन्द्रियचौरास्तथापि तत्तपोनगरं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं न शक्नुवंति प्रध्वंसयितुं सत्पुरुषसुरक्षितनगरवत, यथा महायोधः सुरक्षितं सुदुर्ग सयंत्रितं नगरं विनाशयितुं समर्थ न परचक्रमेवं तपोनगरं रागादयो न विनाशयितं समर्था इति ॥८८०॥ इदानीं ध्यानरथं प्रकटयन्नाह---
एदे इंदियतुरया पयडीवोसेण चोइया संता।
उम्मग्गं णिति रहं करेह मणपग्गहं वलियं ॥८८१॥ एते इन्द्रियतुरगा इमानीन्द्रियाण्येवाश्वा: प्रकृत्या स्वभावेन दोषेण रागद्वेषाभ्यां च चोदिताः इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम ये दो कोतवाल सदा इस नगर की रक्षा करते हैं ऐसा यह मुनियों का तपरूपी नगर है। अर्थात् उत्तम नगर में पाषाणमय अथवा ईंटों का बना हुआ जो चारों तरफ से नगर को घेरे हुए कोट रहता है उसको प्राकार या परकोटा कहते हैं, ऊँचे-ऊँचे कूट गोपुर कहलाते हैं। नगर से निकलने के द्वार में दो कपाट रहते हैं एवं उसकी रक्षा करनेवाले कोतवाल रहते हैं तब वह नगर सुरक्षित रहता है । सो ही तपरूपी नगर में सारी चीजें घटित की गयी हैं ।
उसकी रक्षा क्यों की जाती है, सो ही बताते हैं
गाथार्थ-राग, द्वष, मोह और उद्यत हुए इन्द्रियरूपी चोर हमेशा ही सत्पुरुषों से रक्षित तपरूपी नगर को नष्ट करने में कभी भी समर्थ नहीं होते हैं ।।८८०।।
आचारवृत्ति-यद्यपि यै राग, द्वेष, मोह और इन्द्रियरूपी चोर हमेशा ही इस तपरूपी नगर का विध्वंस करने के लिए उद्यक्त रहते हैं फिर भी वे पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट इस नगर को नष्ट कर नहीं कर सकते हैं। जैसे कि सत्पुरुषों द्वारा सुरक्षित नगर को कोई ध्वंस नहीं कर सकता है अर्थात् जैसे महायोद्धाओं से सुरक्षित, किले सहित, सुयंत्रित नगर को परचक्र अर्थात् शत्रुओं की सेना नष्ट नहीं कर सकती है उसी प्रकार से तपरूपी नगर को ये राग आदि शत्रु नष्ट करने में समर्थ नहीं हैं।
अब ध्यानरथ को बता रहे हैं
गाथार्थ-ये इन्द्रियरूपी घोड़े स्वाभाविक दोष से प्रेरित होते हुए धर्मध्यानरूपी रथ को उन्मार्ग में ले जाते हैं अतः मनरूपी लगाम को मजबूत करो ।।८८१॥
आचारवृत्ति-ये इन्द्रियाँ ही चंचल घोड़े हैं जोकि प्रकृति से ही राग-द्वेषरूप दोषों से प्रेरित होते हुए इस धर्मध्यानरूपी रथ को विषयों से व्याप्त घोर अटवी में पहुँचा देते हैं।
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