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समयसाराधिकारः
सर्वस्यागमस्य' स्वसमयपरसमयानां च सारभूतं समयसाराख्यमधिकारं प्रतिपादयंस्तावदादाविष्टदेवतानमस्कारपूर्विकां प्रतिज्ञामाह
वंदित्तु देवदेवं तिहुअणमहिवं च सव्वसिद्धाणं। .
वोच्छामि समयसारं सुण संखेवं जहावुत्तं ॥१४॥ वंचित-वंदित्वा मनोवाक्कायः प्रणम्य, देवानां देवो देवदेवस्तं' सुराधीश्वरं सर्वलोकनाचं, त्रिभुवनमहितं त्रिभुवनभवनवासिवानव्यंतरज्योतिष्ककल्पवासिमर्त्यप्रधानमहितं तथा सर्वसिद्धाश्च सर्वकर्मविमुक्ताश्च वंदित्वा प्रणम्य वक्ष्ये प्रवक्ष्यामि वक्तुं प्रारभे समयसारं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वं
___ सर्व आगम के एवं स्वसमय और परसमय के सारभूत समयसार नामक अधिकार का प्रतिपादन करते हुए श्राचार्यदेव सबसे पहले इष्टदेवतानमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञासूत्र कहते हैं
__ गाथार्थ-त्रिभुवन से पूजित अरहंतदेव और सर्व सिद्धों की वन्दना करके मैं शास्त्रकथित संक्षिप्त समयसार को कहूंगा, तुम सुनो।।1८६४॥
___ आचारवृत्ति-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन चार प्रकार के देवों में तथा मनुष्यों में प्रधान जो इन्द्र हैं उनसे पूजित होने से अरहन्तदेव त्रिभुवन-पूज्य हैं, देवों के देव सुरों के अधीश्वर अर्थात् सर्वलोक के नाथ अरहन्त देव को तथा सर्व कर्मों से रहित सम्पूर्ण सिद्धों को मन-वचन-काय से प्रणाम करके मैं समयसार को कहूँगा। वह समयसार परमतत्त्व है, बारह
१.क प्रती एतद्दशमपरिच्छेदारंभेऽधोलिखितं श्लोकद्वयमपि वत्तंते, तच्च
नरेन्द्रकीर्ते! मलधारिदेव ! सदाननं पश्यति तावकं यः। श्रियो विहोनोऽपि सविष्णुभार्यः कृती भवेत्स श्रमणप्रधानः ॥१॥ जनयति मुदमन्तव्यपाथोकहाणां, हरति तिमिरराशि या प्रभा भानवीव । कृतनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा,
वितरतु धुतदोषा साहती भारती वः ॥२॥ एतच्छलोकद्वये द्वितीयः श्लोकस्तु सुभाषितरत्नसंदोहस्याद्यः श्लोकः। २. क० तं देवदेवं सुराधीश्वरं ।
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