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शीलगुणाधिकारः ]
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मुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोगः, कायवाङ मनसां शुभक्रिया इत्यर्थः । करणे – करणानि कायवाङ्मनसामशुभक्रियाः सावद्यकर्मादाननिमित्ताः । सण्णा - संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषाः । इंदिय - इन्द्रि याणि । भोम्मादि - भूः पृथिवी आदिर्येषां ते भ्वादयः पृथिवीकायादयः समणधमे य - श्रमणधर्माश्च संयताचरणविशेषाश्व । अण्णोष्र्णोह - अन्योन्येरन्योन्यं परस्परं । अन्भत्था - अभ्यस्ताः समाहताः । त एते योगादयः श्रमणधर्मपर्यन्ताः परस्परं गुणिताः, अट्ठारह- नष्टादशशील सहस्राणि । योगे: करणानि गुणितानि मव भवन्ति, पुनराहारादिसंज्ञाभिश्चतसृभिर्नव गुणितानि षट्त्रिंशद्भवन्ति शीलानि, पुनरिन्द्रियैः पंचभिर्गुणितानि षट्त्रिंशदशीत्यधिकं शतं पुनः पृथिव्यादिभिर्दशाभः कायैरशीतिशत मष्टादशशतानि भवन्ति, पुनः श्रमणधर्म र्दशभिरष्टादशशतानि गुणितानि मष्टादशशील सहस्राणि भवन्तीति ॥१०१६ ॥
योगादीनां भेदपूर्वकं स्वरूपमाह
तिन्हं सुहसंजोगो जोगो करणं च असुहसंजोगो । आहारादी सण्णा फासादिय इंदिया णेया ॥। १०२० ॥
for सन्निकट होने पर और बाह्यनिमित्त रूप मनोवर्गणा का अवलम्बन लेने पर मनःपरिणाम अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है उसे मनोयोग कहते हैं । काय, • वचन और मन की शुभक्रिया रूपयोग यहाँ विवक्षित है अर्थात् शुभ मन के द्वारा, शुभ वचन के द्वारा और शुभ काय के द्वारा होनेवाली क्रिया का नाम शुभ काययोग, शुभ वचनयोग और शुभ मनोयोग है ।
करण - काय, वचन और मन की अशुभ क्रिया जो कि सावद्य रूप से कर्मों के ग्रहण करने में निमित्त होती है-इन मन, वचन, काय को अशुभ क्रियाओं का परिहार करना । संज्ञा - आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषा का नाम संज्ञा है इनका परिहार करना ।
इन्द्रियाँ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्री इन पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग
करना ।
भूमि आदि - पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येकवनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की दया पालना ।
श्रमणधर्म -संयमियों का आचारण विशेष । अर्थात् उत्तम क्षमा आदि धर्म ।
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इन सबके परस्पर से गुणा करने से अठारह हज़ार शील के भेद हो जाते हैं । अर्थात् तीन योग को तीन करण से गुणा करने से नव होते हैं। पुनः नव को चार संज्ञा से गुणित करने पर छत्तीस होते हैं । छत्तीस को पाँच इन्द्रियों से गुणने पर एक सौ अस्सी होते हैं। इन्हें पृथ्वी आदि दश से गुणा करने पर अठारह सौ होते हैं । पुनः इन्हें दश श्रमण धर्म से गुणा करने पर शील के अठारह हजार (३×३× ४× ५×१०×१० = १८०००) भेद हो जाते हैं ।
योग आदि के भेद और स्वरूप को कहते हैं
गाथार्थ - मन, वचन और काय इन तीनों का शुभ से संयोग होना योग है और इन तीनों का अशुभ संयोग होना करण है । आहार आदि को संज्ञाएँ और स्पर्शन आदि को इन्द्रियाँ जानना चाहिए । १०२० ॥
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