________________
[ १६५
शीलगुणाधिकार। ]
पृथिव्यादिकमेकम् अशीतिशतवारम् अशीतिशतवारं संस्थापनीयं तत एतत्सर्वं प्रथमः पिण्डः, क्षान्त्यादयो दश द्वितीयः पिण्डः, एवं प्रथमपिण्डम् अष्टादशशतमात्रं दशसु स्थानेषु संस्थाप्य तस्योपरि क्षान्त्यादिकमेकैकम् अष्टादशशतवारम् अष्टादशशतवारं कृत्वा संस्थापनीयं ततो विषमः प्रस्तारः सम्पूर्णः स्यात्पिण्डं प्रति निक्षिप्ते सत्येवं तथैव विशेषा अपि विकल्पाः कर्त्तव्याः । गुणप्रस्तारोऽपि विषमोऽनेनैव प्रकारेण साध्यत इति ।। १०३६ ॥
दशद्वितीय पिण्ड होता है । वह प्रथम पिण्ड जो एक सौ अस्सी प्रमाण हुआ है उसे दश बार स्थापित करके उसके ऊपर पृथ्वी आदि एक-एक को एक सौ अस्सी एक सौ अस्सी बार स्थापित करना चाहिए । इसके बाद यह सब प्रथम पिण्ड होता है । पुनः क्षमा आदि दश द्वितीय पिण्ड हैं । इसके पहले प्रथम पिण्ड जो अठारह सौ हुआ है उसे दश स्थानों में रखकर उसके ऊपर क्षमा आदि एक-एक को अठारह सौ अठारह सौ बार करके स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार से विषम प्रस्तार सम्पूर्ण होता है । इसी तरह से अन्य भेदों को भी करना चाहिए अर्थात् गुणों के विषम प्रस्तार का क्रम भी इसी प्रकार से सिद्ध करना चाहिए ।
१११ ३३३
विशेषार्थ - इस विषमप्रस्तार के निकालने की सरल प्रक्रिया अन्यत्र ग्रन्थों' में इस प्रकार है । यथा - दूसरे शील का प्रमाण तीन है इसलिए तीन स्थान पर प्रथम शील के प्रमाण तीन को पिण्डरूप से स्थापित करके अर्थात् प्रत्येक योग पिण्ड के प्रति एक-एक करण का इस तरह स्थापन करना । इन्हें परस्पर जोड़ने से होते हैं। पुनः इन नव को भी प्रथम समझकर, इनसे आगे के संज्ञा शील का प्रमाण चार है, इसलिए नव के पिण्ड को चार ११११ जगह रखकर, बाद में प्रत्येक पिण्ड पर क्रम एक-एक संज्ञा का स्थापन करना ε 2 2 2 चार जगह रखे हुए नव-नव को परस्पर में जोड़ने पर शीलों की संख्या छत्तीस होती है । पुनः इन छत्तीस को भी प्रथम समझकर इनसे आगे के इन्द्रियशील का प्रमाण पांच है, इसलिए छत्तीस के पिण्ड को पाँच स्थान पर रखकर पीछे प्रत्येक पिण्ड पर क्रम से एक-एक इन्द्रिय की
। इन
१ १ १ १ १
स्थापना करना
३६ ३६ ३६ ३६ ३६ । पुनः इन छत्तीस को परस्पर जोड़ देने से एक सौ अस्सी संख्या आ जाती है । इन एक सौ अस्सी को अगले शील के भंग पृथ्वी आदि के दश के बराबर अर्थात् दश जगह स्थापन करके प्रत्येक के ऊपर क्रम से एक-एक पृथ्वी आदि की स्थापना
१ १ १ १ १ १ १ १ १ १
करना
१८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० १८० । पुनः इन्हें परस्पर जोड़ देने पर अठारह सौ प्रमाण संख्या हो जाती है । पुनः इनको प्रथम समझकर अगले क्षमादि दश के बराबर
१
१
१
१ १
१
१ १
१ १
पिण्ड रूप से रखन १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० १८०० पुनः इनको परस्पर में जोड़ने पर १८००० हो जाते हैं । इस तरह से यह विषम प्रस्तार को समझने की सरल प्रक्रिया है ।
१ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org