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२१.]
[ मूलाचारे विशेषो देवनारकाणामनुसमय पर्याप्तिः शेषाणां भिन्नमुहूर्तेनेति नैष दोषः देवनारकाणां पर्याप्तिसमानकाले एव सर्वावयवानां निष्पत्तिर्भवति न शेषाणां सर्वेषां यतो यस्मिन्नेव काले देवनारकारणामाहारादिकारणस्य निष्पत्तिस्तस्मिन्नेव काले शरीरादिकार्यस्यापि, तिर्यङ् मनुष्याणां पुनर्लघुकालेनाहारादिकारणस्य निष्पत्तिः शरीरादिकार्यस्य च महत्तातः सर्वेषामुपपादिनामनुसमयं पर्याप्तयः तिर्यङ मनुष्याणां भिन्नमुहूर्तेनेत्युक्तमिति । पर्याप्तीनां स्थितिकालस्तिर्यङ्मनुष्याणां जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणं किंचिदून उच्छ्वासाष्टादशभाग उत्कृष्टेन त्रीणि पल्योपमानि, देवनारकाणां च जघन्येन दशवर्षसहस्राण्युत्कृष्टेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि जीवितसमाः पर्याप्तयो यतो न पृथक स्थितिकाल उक्त इति ॥१०५०॥ अथ कथमेतज्ज्ञायतेऽनुसमयं पर्याप्तिरुपपादिनामिति पृष्टे पूर्वागममाह
जह्मि विमाणे जादो उववादसिला महारहे सयणे।
अणुसमयं पज्जत्तो देवो दिव्वेण रूवेण ॥१०५१॥ जम्हि-यस्मिन्, विमाणे-विमाने भवनादिसर्वार्थसिद्धिविमानपर्यन्ते, जादो-जात उत्पन्न:, उववादसिला-उपपादशिलायां शुक्तिपुटकारायां, महारहे-महा: महापूज्याहे, सयणे-शयने शयनीयेऽनेकमणिखचितपयंके सर्वालंकारविभूषिते, अणुसमयं-अनुसमयं समयं समयं प्रति, पज्जत्तो-पर्याप्तः सम्पूर्णहोती हैं यह अन्तर क्यों?
यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि देव और नारकियों के शरीर के सर्व अवयवों की पूर्णता पर्याप्तियों की पूर्णता के काल में ही हो जाती है, शेष सभी जीवों के नहीं होती है क्योंकि जिस काल में देव-नारकियों के आहार आदि कारणों की पूर्णता होती है उसी काल में उनके शरीर आदि कार्यों की रचना पूर्ण हो जाती है। पुनः तिर्यंच और मनुष्यों के लघु काल के द्वारा आहार आदि कारणों की पूर्णता रूप पर्याप्ति हो जाती है किन्तु शरीर आदि कार्यों की पूर्णता बहत काल में हो पाती है। इसीलिए 'सभी उपपाद जन्मवालों के समय समय में पर्याप्तियाँ होती हैं। तिर्यंच और मनुष्यों के अन्तर्मुहूर्त से होती हैं ऐसा कहा गया है।
पर्याप्तियों का स्थितिकाल तिर्यंच और मनुष्य के जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण है अर्थात कुछ कम उच्छ्वास के अठारहवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है। देव-नारकियोंका जघन्य से दश हजार वर्ष है और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम है । यहाँ पर पर्याप्तियों और जीवित अवस्था का काल समान कहा गया है, क्योंकि स्थितिकाल पृथक् से नहीं कहा गया है।
यह कैसे जाना जाता है कि उपपाद जन्मवालों के प्रतिसमय पर्याप्तियाँ होती हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हुए पूर्वागम को बतलाते हैं---
गाथार्थ-जिस विमान में उपपादशिला पर, श्रेष्ठ शय्या पर जन्म लेते हैं वे दव दिव्य रूप के द्वारा प्रतिसमय पर्याप्त हो जाते हैं ॥१०५१॥
आचारवत्ति-भवनवासी आदि से लेकर सर्वार्थ सिद्धिपर्यन्त विमानों में जो उपपाद शिलाएँ हैं उनका आकार बन्द हुई सीप के सदृश है। उन शिलाओं पर सभी अलकारों से विभूषित, मणियों से खचित, श्रेष्ठ पर्यंकरूप शय्याएँ हैं। उन पर वे देव शोभन शरीर आदि आकार और वर्ण से प्रतिसमय में पर्याप्त होकर सर्वाभरण से भूषित और सम्पूर्ण यौवनवाले हो
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