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समयसाराधिकारः ]
क्षीयते ततः सर्वथा यत्नाचारेण भवितव्यमिति ।। १०१६ |
समयसारस्योपसंहारगाथेयं
एवं विधाणचरियं जाणित्ता आचरिज्ज जो भिक्खू । णासेऊण दु कम्मं दुविहं पि य लह लहइ सिद्धि ॥ १०९७॥ #
एवमनेन प्रकारेण विधानचरितं क्रियानुष्ठानं ज्ञात्वा आचरति यो भिक्षुः स साधुर्नाशयित्वा कर्म द्विप्रकारमपि शुभाशुभरूपमपि द्रव्यरूपं भावरूपं वा शीघ्रं लभते सिद्धि' यत एवं चारित्रान्मोक्षो भवति सर्वस्य नहीं होता है और चिरन्तन बँधे हुए कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए सर्वथा - सब प्रकार से यत्नाचार होना चाहिए ।
समयसार अधिकार की यह उपसंहार गाथा है
गाथार्थ - जो साधु इस प्रकार से विधानरूप चारित्र को जानकर आचरण करते हैं वे दोनों प्रकार के कर्मों का नाश करके शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।। १०१७ ।।
प्राचारवृत्ति--जो साधु इस प्रकार से क्रियाओं के अनुष्ठान को जानकर आचरण करते हैं वे शुभ और अशुभ रूप अथवा द्रव्यरूप और भावरूप इन दोनों प्रकार के कर्मों को नष्ट
१. क सिद्धि मोक्षं ।
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार में निम्नलिखित गाथाएं अधिक हैं
जवं तु चिट्ठमाणस्स वयापेक्खिस्स भिक्खुणो । णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥ जवं तु आसमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो । णवं ण बज्झवे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥ जदं तु सयमाणस्स वयापेक्खिस्स भिक्खुणो । णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥ जवं तु भुंज माणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो । ण ण बज्झवे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥ जदं तु भासमाणस्स वयापेक्खिस्स भिक्खुणो । ण ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥
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दव्यं खेत्तं कालं भावं च पडुच्च तह य संघडणं । चरणम्हि जो पवट्ठइ कमेण सो णिरवहो होइ ॥
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अर्थात् यत्नपूर्वक खड़े होनेवाले और दया का पालन करनेवाले साधु के नवीन कर्म नहीं बंधते हैं तथा पुराने कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। ऐसे ही यत्नपूर्वक बैठने वाले, यत्नपूर्वक सोने वाले, यत्नपूर्वक आहार करनेवाले और यत्नपूर्वक बोलनेवाले तथा दया से सर्व जीवों का निरीक्षण करनेवाले साधु के नूतन कर्मों का बन्ध नहीं होता है तथा पुराने कर्म झड़ जाते हैं। इस तरह जो साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और अपने शरीर संहनन का अनुसरण करके चारित्र में प्रवृत्ति करता है वह क्रम से बधरहित-अहिंसक हो जाता है ।
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