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प्रश्नमालाया उत्तरमाह
जयं चरे जवं चिट्ठे जदमासे जदं सये ।
जवं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ॥ १०१५॥
नेनेर्यापथसमिति शुद्ध्या चरेद् यत्नेन तिष्ठेद् महाव्रतादिसंपन्नो यत्नेनासीत प्रतिमिख्य जीवानविराधयन् पर्यकादिना यत्नेन शयीत प्रतिलिख्योद्वर्तनपरावर्त्तनादिकमकुर्वन् संकुचितात्मा रात्रौ शयनं कुर्याद् यन मुंजीत षट्चत्वारिंशद्दोषवर्जितां भिक्षां गृह्णीयाद्यत्नेन भाषेत भाषासमितिक्रमेण सत्यव्रतोपपन्नः एवमनेन प्रकारेण पापं न बध्यते कर्मास्रवो न भवतीति ।। १०१५ ।।
यत्नेन चरतः फलमाह -
जयं तु चरमाणस्य 'क्यापेहस्स भिक्खुणो ।
णवं ण बज्दे कम्मं पोराणं च विधूयवि ।। १०१६॥
यत्नेनाचरतो भिक्षोर्दयाप्रेक्षकस्य दयाप्रेक्षिणो नवं न बध्यते कर्म चिरन्तनं च विधूयते निराक्रियते । एवं यत्नेन तिष्ठता यत्नेनासीनेन यत्नेन शयानेन भुंजानेन यत्नेन भाषमाणेन नवं कर्म न बध्यते चिरन्तनं च
[ मूलाचारे
इस प्रश्नमाला का उत्तर देते हैं
गाथार्थ - यत्नपूर्वक गमन करे, यत्नपूर्वक खड़ा हो, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक आहार करे और यत्नपूर्वक बोले; इस तरह करने से पाप का बन्ध नहीं होगा || १०१५ ||
आचारवृति - सावधानीपूर्वक - ईर्यापथशुद्धि से गमन करे । सावधानीपूर्वक अर्थात् महाव्रत आदि व्रतों से सहित होकर रहे । सावधानीपूर्वक चक्षु से देखकर और पिच्छिका से परिमार्जन करके जीवों की विराधना न करते हुए पर्यंक आदि से बैठे। सावधानीपूर्वक पिच्छिका से प्रतिलेखन करके उद्वर्तन-परिवर्तन अर्थात् करवट बदलने आदि क्रियाएँ करते हुए संकुचित are करके रात्रि में शयन करे। सावधानीपूर्वक छ्यालीस दोष वर्जित आहार ग्रहण करे, तथा सावधानीपूर्वक सत्यव्रत से सम्पन्न होकर भाषासमिति के क्रम से बोले । इस प्रकार से पाप का बन्ध नहीं होता है अर्थात् कर्मों का आस्रव रुक जाता है ।
यत्नपूर्वक गमन करने का फल कहते हैं
गाथार्थ-यत्नपूर्वक चलते हुए, दया से जीवों को देखनेवाले साधु के नूतन कर्म नहीं बँधते हैं और पुराने कर्म झड़ जाते हैं ।। १०१६ |
१. व दयापेहिस्स ।
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आचारवृत्ति - प्रयत्नपूर्वक आचरण करते हुए साधु को, जो कि दया से सर्वजीवों का अवलोकन करनेवाले हैं, नवीन कर्म नहीं बँधते हैं और पुराने बँधे हुए कर्म दूर हो जाते हैं। इसी प्रकार से सावधानीपूर्वक ठहरते हुए, सावधानीपूर्वक बैठते हुए, सावधानीपूर्वक सोते हुए, सावधानीपूर्वक आहार करते हुए और सावधानीपूर्वक बोलते हुए साधु के नवीन कर्मों का बन्ध
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