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समयसाराधिकारः ]
[११३ तन्मध्यपतितत्वाद् ध्यानस्य, संयमश्च गुप्तिकरः इन्द्रियनिग्रहो जीवदया च कर्मागमप्रतिवन्धकारणमतो ज्ञानेन प्रकाशिते संयमः परिहारो युक्तः परिहारे च ध्यानं निर्विघ्नतया प्रवर्ततेऽतस्त्रयाणामपि संयोगे भवति स्फट जिनशासने मोक्षो न पूर्वेण विरोधो द्रव्याथिकनयाश्रयणादिति ।।९०१॥ यदि पुनरेते रहितानि ज्ञानलिंगतपांसि करोति तदा किं स्यात्
णाणं करणविहीणं लिंगग्गहणं च संजमविहणं ।
दसणरहिदो य तवो जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ ॥६०२॥ ज्ञानं करणविहीनं करणशब्देनात्र षडावश्यकादिक्रियाचारित्रं परिगृह्यते, लिंगं जिनरूपमचेलकत्वादियुक्तता, लिंगस्य ग्रहणमुपादानं तत्संयमविहीनं संयमेन विना, दर्शनं सम्यक्त्वं तेन रहितं च तपो यः करोति स पुरुषः निरर्थकं कर्मनिर्जरारहितं करोति । ज्ञानं चारित्रविमुक्त लिंगोपादानं चेन्द्रियजयरहितं दयारहितं च यः करोति सोऽपि न किंचित्करोतीति तस्मात्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि युक्तान्येवेति ।।१०२॥ सम्यग्ज्ञानादियुक्तस्य तपसो ध्यानस्य च माहात्म्यमाह
तवेण धीरा विधुणंति पावं अज्झप्पजोगेण खवंति मोहं। संखीणमोहा धदरागदोसा ते उत्तमा सिद्धिदि पयंति ।।०३।।
वही प्रकरण में है। अथवा सभी बारहों तपों को भी ग्रहण करना चाहिए क्योंकि ध्यान तो उनमें है ही। इन्द्रियनिग्रह और जीवदया रूप संयम कर्मों के आगमन में प्रतिबन्ध लगाने वाला है। इसलिए ज्ञान के द्वारा मार्ग के प्रकाशित होने पर संयम-त्याग युक्त ही है और त्याग के होने पर ध्यान निर्विघ्न रूप से प्रवृत्त होता है। अतः इन तीनों के मिलने पर ही स्पष्ट रूप से जिन शासन में मोक्ष-प्राप्ति होती है। पूर्व की गाथाओं के कथन से इसमें विरोध नहीं है क्योंकि वहां पर द्रव्याथिकनय का आश्रय लेकर कथन किया गया है।
भावार्थ-पहले गाथा ८६६ में जो चारित्र से ही मोक्ष का कथन है सो द्रव्याथिकनय की प्रधानता से है और इन दो गाथाओं में जो तीनों के संयोग की बात है सो पर्यायाथिकनय की प्रधानता से है।
यदि पुनः इनसे रहित कोई मुनि ज्ञान, लिंग अथवा सप इनमें से एक-एक को करते हैं तो क्या फल मिलेगा?
__गाथार्थ-क्रिया रहित ज्ञान, संयम रहित वेषधारण और सम्यक्त्व रहित तप को जो करते हैं सो व्यर्थ ही करते हैं ॥६०२॥
आचारवृत्ति-षड्-आवश्यक क्रिया आदि तेरह क्रियारूप चारित्र ग्रहण करना करण है। अचेलकत्व आदि से युक्त जिनमुद्रा धारण करना लिंग है। अर्थात तेरह प्रकार की क्रियाओं से रहित ज्ञान, इंद्रियजय और प्राणिदयारूप संयम से रहित निग्रंथ वेष, और सम्यक्त्व रहित तप जो धारण करता है, वह निर्जरा रहित (निरर्थक) कर्म ही करता है। इसलिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र युक्त ही मोक्षमार्ग है ।
सम्यग्ज्ञान आदि से युक्त तप और ध्यान का माहात्म्य कहते हैं___ गाथार्थ-धीर मनि तप से पाप नष्ट करते हैं, अध्यात्मयोग से मोह का क्षय करते हैं। पुनः, वे उत्तम पुरुष मोह रहित और रागद्वेष रहित होते हुए सिद्धगति प्राप्तकर लेते हैं ।।६०३॥
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