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समयसाराधिकारः]
कल्लं कल्लं श्वस्तनदिने दिने वरं श्रेष्ठमाहारो भोजनं परिमितः प्रमाणस्थः वातपित्तश्लेष्मविकाराहेतक: प्रशस्तोऽध:कर्मादिदोषरहितः न च क्षमणादीनि उपवासाः पारणा भोजनदिनानि बह व्यः षष्ठाष्टमदशमद्वादशमासार्द्धमासादिदिनानि बहुशो बहुवारान् बहुविधश्च बहुप्रकारश्च बहु सावद्ययोगयुक्तो महारंभनिष्पन्नो दातृजनसंक्लेशोत्पादको य आहारस्तेन यदि महत्तपः क्रियते न तत्तपो महद् भवति बहारंभादिति ॥६४०।। कस्तर्हि शुद्धयोग इत्याशंकायामाह
मरणभयभीरुआणं अभयं जो देदि सव्वजीवाणं।
तं दाणाण वि दाणं तं पुण जोगेसु मूलजोगं पि ॥६४१॥ मरणाद्यद्भयं तस्माद्भीतेभ्योऽभयं यो ददाति सर्वसत्त्वेभ्यस्तदानानामपि दानं सर्वेषां दानानां मध्ये तद्दानं तत्पुनर्योगेषु अपि मूलयोगः प्रधानानुष्ठानं यदभयदानमिति ।।६४१॥ गुणस्थानापेक्षया चारित्रस्य माहात्म्यमाह
सम्मादिदिस्य वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि।
होदि हु हत्थिण्हाण चुंदच्छिदकम्म तं तस्स ॥४२॥ तिष्ठतु तावन्मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टेरप्यविरतस्यासंयतस्य न तपो महागुणः । अयं गुणशब्दोऽनेकार्थे
प्राचारवत्ति-प्रमाण सहित, वात-पित्त-कफ आदि विकार में अहेतुक और अधःकर्म आदि दोषों से रहित प्रशस्त आहार अगले-अगले दिन-प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है किन्तु बेला, तेला, चार उपवास, पाँच उपवास, एक मास या पन्द्रह दिन आदि के उपवास करके पारणा के दिन बहत सावद्ययोग से युक्त, महान आरम्भ से निष्पन्न और दाता को संक्लेश उत्पन्न करने वाला आहार लेना युक्त नहीं है। ऐसी सदोषी पारणा करके यदि महान तप किया जाता है तो वह तप श्रेष्ठ नहीं कहलाता है क्योंकि उसमें बहुत-सा आरम्भ किया जाता है।
तो फिर शुद्धयोग क्या है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं---
गाथार्थ-जो मुनि मरण के भय से भीरु सभी जीवों को अभयदान देता है उसका अभयदान सर्वदानों में श्रेष्ठ है और सभी योगों में प्रधान योग है ।।६४१॥
आचारवृत्ति-मरण का भय सबसे बड़ा भय है। जो मुनिराज मरण के भय से भीत सभी जीवों को अभयदान देता है अर्थात सब जीवों की रक्षा करता है उसका दान सभी दानों में श्रेष्ठ है और सब योगों में प्रधान योग भी है। अर्थात् सर्व दानों में और सर्व अनुष्ठानों में अभयदान ही महान् है।
गुणस्थान की अपेक्षा से चारित्र का माहात्म्य कहते हैं
गाथार्थ-व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का भी तप महागुणकारी नहीं है क्योंकि वह हाथी के स्नान के समान और लकड़ी में छिद्र करनेवाले वर्मा के समान होता है । ६४२॥
___ आचारवृत्ति-मिथ्यादृष्टि की तो बात ही छोड़िए, सम्यग्दृष्टि भी यदि संयम रहित है, असंयमी है तो उसका तप भी महागुणकारी नहीं होता। गुण शब्द के अनेक अर्थ हैं, इसके कुछ दृष्टान्त प्रस्तुत हैं :
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