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समयसाराधिकारः ]
जुगुप्सापरिहारमाह
ववहारसोहणाए परमट्ठाए तहा परिहरउ । दुविहा चावि दुगंछा लोइय लोगुत्तरा चेव ॥ १४८ ॥
जुगुप्सा गर्दा द्विविधा द्विप्रकारा लौकिकी लोकोत्तरा च । लोकव्यवहारशोधनार्थं सूतकादिनिवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा 'परमार्थार्थं रत्नत्रयशुद्ध्यर्थं लोकोत्तरा च 'कार्येति ॥ ९४८ ॥
पुनरपि क्रियापदेन प्रकटयन्नाह
परमट्ठियं विसोहि सुट्ठ पयत्त ेण कुणइ पव्वइश्रो ।
परमदुगंछा विय सुट्टु पयत्तरेण परिहरउ ॥४६॥
परमार्थिकां विशुद्धि कर्मक्षयनिमित्तां रत्नत्रयशुद्धि सुष्ठु प्रयत्नेन करोतु प्रव्रजितः साधुः परमार्थजुगुप्सामपि शंकादिकां सुष्ठु प्रयत्नेन परिहरतु त्यजत्विति ॥ ४६ ॥
तथा---
[ १३७
संजममविराधतो करेउ ववहारसोधणं भिक्खू । ववहारदुगंछावि य परिहरउ वदे अभंजंतो ॥ १५० ॥
जुगुप्सा - परिहार का उपदेश देते हैं
गाथार्थ – साधु लौकिक और अलौकिक दोनों ही प्रकार की जुगुप्सा व्यवहार की शुद्धि के लिए तथा परमार्थ की सिद्धि के लिए त्याग दें ॥ १४८ ॥
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आचारवृत्ति - निन्दा के दो भेद हैं-लौकिक और अलौकिक । लोकव्यवहार की शुद्धि के लिए सूतक आदि के निवारण हेतु लौकिक निन्दा का परिहार करना चाहिए और परमार्थ के लिए - रत्नत्रय की शुद्धि के लिए लोकोत्तर जुगुप्सा नहीं करना चाहिए ।
विशेष – यहाँ 'च कार्या' के स्थान में 'न कार्या' ऐसा पाठान्तर है उसी का अर्थ प्रकरण से घटित होता है ।
पुनरपि क्रियापद से उसी को प्रगट करते हैं—
गाथार्थ - दीक्षित मुनि पारमार्थिक विशुद्धि को अच्छी तरह सावधानी पूर्वक करते हैं इसलिए परमार्थ निन्दा का भी भलीभाँति प्रयत्नपूर्वक परिहार करो ॥१४६॥
आचारवृत्ति - साधु कर्मक्षय निमित्तक रत्नत्रय शुद्धि को अच्छी तरह प्रयत्नपूर्वक करें तथा परमार्थ जुगुप्सा अर्थात् शंकादि दोषों का भी भलीभाँति प्रमाद रहित होकर त्याग करें ।
उसी को और कहते हैं
गाथार्थ - साधु संयम की विराधना न करते हुए व्यवहार-शुद्धि करें एवं व्रतों को भंग न करते हुए व्यवहार निन्दा का भी परिहार करें ।। ६५० ॥
१. क० परमार्थशोधनार्थं । २. न कार्येति इति पाठान्तरम् ।
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