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समयसाराधिकारः ]
विवर्जयेत् परित्यजेन्न तेन सह संवामं कुर्यादिति ॥६०॥
तथा पापश्रमणस्य लक्षणमाह-
प्रायरियकुलं मुच्चाविहरदि समणो य जो दु एगागी । णय गेहदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वृच्चदि दु ॥६६१॥
आचार्यकुलं श्रमण संघ मुक्त्वा यः स्वेच्छया विहरति गच्छति जल्पति चिन्तयति श्रमण एकाकी संघाटकरहितः, उपदेशं च दीयमानं यो न गृह्णाति शिक्षां नादत्ते स पापभ्रमण इत्युच्यते ॥ ९ ६ १ ॥
तथा
आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं । fes ढारिओ निरंकुसो मत्तहत्थिव्व ॥ ६६२॥*
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आचार्यत्वं कर्तुं त्वरितः पूर्व शिष्यत्वमकृत्वा यः स्वेच्छया हिंडत्याचरति भ्रमति च ढोढाचार्यः पूर्वापरविवेकशून्यो यथा निरकुंशो मत्तहस्ती । सोऽपि पापश्रमण इत्यतस्तमपि न सेवेतेति ॥ ६२ ॥ पुनरपि संसर्गजं दोषमाह दृष्टान्तेनेति
नहीं जानता है अर्थात् लोकविराधना में तत्पर है, परलोक का नाश करनेवाला है ऐसे श्रमण के साथ वह चिरकाल से भी दीक्षित है तो भी संवास नहीं करना चाहिए।
उसी प्रकार से पापश्रमण का लक्षण कहते हैं
गाथार्थ -- जो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहलाता है ||६६१ ।।
आचारवृत्ति--जो आचार्यसंघ को छोड़कर स्वेच्छा से विहार करता है, स्वेच्छापूर्वक बोलता है और स्वेच्छा से चितवन करता है, संघ से रहित अकेला रहता है, दिये गये उपदेश - शिक्षा को स्वीकार नहीं करता है वह पापश्रमण कहलाता है ।
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उसी को और कहते हैं
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गाथार्थ - जो पहले शिष्यत्व न करके आचार्य होने की जल्दी करता है वह ढोंढाचार्य है । वह मदोन्मत्त हाथी के समान निरंकुश भ्रमण करता ॥९६२॥
श्राचारवृत्ति - जो पहले शिष्य न बनकर आचार्य बनने को उत्सुक होता है और स्वेच्छापूर्वक आचरण करता है वह पूर्वापर विवेक से शून्य होता हुआ ढोंढाचार्य कहलाता है । जैसे अंकुश रहित मत्त हाथी भ्रमण करता है वैसे ही वह भी पापश्रमण कहलाता है इसलिए उसका आश्रय न ले ।
पुनरपि दृष्टान्त से संसर्गजन्य दोष को कहते हैं
* फलटन से प्रकाशित मूल में यह गाथा किंचित् बदली हुई है । आयरियकुलं मुच्चा विहरदि एगागिणो दु जो समणो । अविगेहिय उवदेसं ण य सो समणो समणडोंबो ॥
अर्थ- जो आचार्य कुल - को छोड़कर और उपदेश को न ग्रहणकर एकाकी विहार करता है वह श्रमण डोंब है ।
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