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समयसाराधिकारः ]
[ १५७
ततः क्रोधमानमायालोभाः प्रत्ययभूताः परिग्रहादयो लोभादिषु सत्सु जायन्ते ततस्तेषां लोभाari aai विनाशे प्रध्वंसे विनाशमुपयान्ति परिग्रहादयो यत एवं ततो हेतुविनाशः कर्तव्यः सर्वसाधुभि: प्रम - तादिक्षीणकषायान्तैर्लोभादीनामभावे परिग्रहेच्छा न जायते मूर्च्छादिपरिग्रहस्तदभावे प्रयत्नः कार्यः । पूर्वकारिकथा कारणाभावे कार्यस्याभावः प्रतिपादितोऽनया पुनः कार्यस्याभावो' निगदितः । अथवा पूर्वगाथोपसंहारार्थेय गाथा तत एवमभिसम्बन्धः कार्यः, हेतवः कारणानि प्रत्ययभूतानि कार्याणि हेतुविनाशे तेषां सर्वेषां विनाशो यतः कारणाभावे कार्यस्य चाभावस्ततो हेतुविनाशे यत्नः कार्य इति ॥ ९८७ ॥
दृष्टान्तं दान्तेन योजयन्नाह
जं जं जे जे जीवा पज्जायं परिणमंति संसारे ।
रायस् य दोसस्स य मोहस्स वसा मुणेयव्वा ॥८८॥
यं यं पर्यायविशेषं नारकत्वादिस्वरूपं परिणमन्ति गृह्णन्ति जीवाः संसारे ते पर्यायास्ते च जीवा
श्राचारवृत्ति - क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय-हेतु हैं। इन लोभादिकों के होने पर ही परिग्रह आदि कार्य होते हैं । अतः इन हेतुओं के नष्ट हो जाने पर परिग्रह आदि (संज्ञाएँ) भी
हो जाती हैं । प्रमत्त नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायपर्यन्त सभी साधुओं को इन तुओं का विनाश करना चाहिए, क्योंकि लोभ आदि कषायों के नहीं रहने पर परिग्रह की इच्छा नहीं होती है । ये मूर्च्छा आदि परिणाम ही परिग्रह हैं, इन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
पूर्व कारिका द्वारा कारण के अभाव में कार्य का अभाव प्रतिपादित किया गया है । पुनः इस गाथा द्वारा भी कार्य का अभाव कहा गया है ।' अथवा पूर्व गाथा के उपसंहार के लिए यह गाथा कही गयी है, अतः ऐसा संबन्ध करना कि हेतु-कारण प्रत्यय हैं, परिग्रह आदि कार्य हैं । हेतु के नहीं रहने पर उन सब कार्यों का भी अभाव हो जाता है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव अवश्यम्भावी है, इसलिए कारणों का नाश करने के लिए ही प्रयत्नशील होना चाहिए ।
दृष्टान्त को दान्त में घटाते हुए कहते हैं—
गाथार्थ - संसार में जो-जो जीव जिस-जिस पर्याय से परिणाम करते हैं वे सब रागऔर मोह के वशीभूत होकर ही परिणमते हैं ऐसा जानना ॥ ६८८ ||
आचारवृत्ति - संसार में जीव नारक, तिर्यंच आदि जिन जिन पर्यायों को ग्रहण करते
१. क हेतवः । २. क कार्यस्याभावेऽभावो निगदितः । ३. क करणीयः ।
४. क० प्रति में 'कार्यस्याभावेऽभावो निगदितः' ऐसा पाठ है। उसके अनुसार यह अर्थं प्रकट होता है कि पूर्वकारिका द्वारा कारण के अभाव में कार्य का अभाव कहा गया है और इस कारिका के द्वारा कार्य के अभाव में कारण का अभाव कहा गया है। अर्थात् पहले कषाय को कारण और परिग्रह को कार्य कहा गया था, यहाँ परिग्रह को कारण और लोभोत्पत्ति को कार्य कहा है अतः परिग्रह छोड़ना चाहिए ।
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