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समयसाराधिकारः ]
[ १५६ चतुरंगुलप्रमाणा जिह्वा अशुभा चतुरंगुलप्रमाणं चोपस्थं मथुनक्रियानिमित्तं एतदष्टांगुलदोषेणव जीवो दुःखं प्राप्नोति स्फुटं यतस्ततो जिह्वामुपस्थं च त्यज जयेति ।।६६१॥ स्पर्शनजयकारणमाह
बीहेदव्वं णिच्चं कट्टत्थस्स वि तहित्थिरुवस्स ।
हवदि य चित्तक्खोभो पच्चयभावेण जीवस्स ॥६६२॥ भेतव्यं नित्यं सर्वकालं वासः कर्त्तव्य. 'काष्ठस्थादपि स्त्रीरूपात काष्ठलेपचित्रादिकर्मणोऽपि स्त्रीरूपागः कर्तव्यो यतो भवति चित्तशोभः मनसश्चलनं प्रत्ययभावेन विश्वासात्कारणवशाज्जीवस्येति ॥२॥ तथा
घिदभरिदघडसरित्थो पुरिसो इत्थी बलंतअग्गिसमा ।
तो महिलेयं ढुक्का पट्टा पुरिसा सिवं गया इयरे ॥३॥ पुरुषो घृतभृतकुंभसदृशः स्त्री पुनवलदनलसदृशी यथा प्रज्वलदग्निसमीपे स्त्यानघृतपूर्णघटः शीघ्रप्रक्षरति तथा स्त्रीसमीपे मनुष्या यत एवं ततो महिलायाः समीपमुपस्थिता जल्पहासादिवशं गताः पुरुषा नष्टा, ये च न तत्र संगतास्ते शिवं गताः शिवगति प्राप्ता इति ॥१३॥
प्राचारवत्ति-चार अंगुल की यह जिह्वा अशुभ है और चार अंगुल का यह उपस्थ अर्थात् मैथुनक्रिया की निमित्त यह कामेन्द्रिय भी अशुभ है। इन आठ अंगुलों के दोष से ही जीव दुःख प्राप्त करता है। इसलिए हे मुने ! तुम इन दोनों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो।
स्पर्शन-जय का कारण कहते हैं
गाथार्थ-काठ में बने हुए भी स्त्रीरूप से हमेशा डरना चाहिए क्योंकि कारण के सद्भाव से जीव के मन में क्षोभ हो जाता है ।।६६२॥
प्राचारवृत्ति-काठ, लेप, चित्र आदि कलाकृति में बने हुए भी स्त्रीरूपसे हमेशा भयभोत रहना चाहिए क्योंकि कारण के वश से अथवा उन पर विश्वास कर लेने से जीव के मन में चंचलता हो जाती है।
तथा
गाथार्थ--पुरुष घी से भरे हुए घट के सदृश है और स्त्री जलती हुई अग्नि के सदृश है। इन स्त्रियों के समीप हुए पुरुष नष्ट हो गये हैं तथा इनसे विरक्त पुरुष मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ।।६६३॥
आचारवत्ति-पुरुष घृत से भरे हुए घड़े के समान है और स्त्री जलतो हुई अग्नि के समान है। जैसे जमे हुए घी का घड़ा अग्नि के समीप में शीघ्र ही पिघल जाता है, उसी प्रकार से स्त्री के समीप में पुरुष चंचलचित्त हो जाता है । इसीलिए स्त्रियों के साथ जल्प, हास्य आदि के वश में हुए पुरुष नष्ट हो गये हैं और जिन्होंने उनका संसर्ग नहीं किया है वे शिवगति को प्राप्त कर चुके हैं। १. क काष्ठोत्यादपि।
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