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बो बित्तणं पत्तो दुरासएण जहा तहा । समणं मंदसंवेगं श्रपुट्ठधम्मं ण सेविज्ज ॥ ९६३ ॥
यथाऽम्रवृक्षो दुराश्रयेण निबत्वं प्राप्तस्तथा श्रमणं मन्दसंवेगं धर्मानुरागालसं अपुष्टधर्मं समाचारनंदुराश्रयेण संजातं न सेवेत नाश्रयेदात्मापि तदाश्रयेण तथाभूतः स्यादिति ॥ ९६३ ॥ तथा पार्श्वस्थान्नित्यं भेतव्यमिति प्रदर्शयन्नाह -
बिहेदव्वं णिच्चं दुज्जणवयणा पलोट्टजिब्भस्स । वरणयरणिग्गमं पिव वयणकयारं वहतस्स ॥ ९६४ ॥
[ मूलाचारे
दुर्जनवचनात् किविशिष्टात् । प्रलोटजिह्वात् पूर्वापरतामनपेक्ष्य वाचिनो वरनगरनिर्गमादिव वचनकचवरं वहतः नित्यं भेतव्यं न तत्समीपे स्थातव्यमिति ॥ ९६४ ॥
तथेत्थंभूतोऽपि यस्तस्मादपि भेतव्यमिति दर्शयन्नाह -
आयरियत्तणमुवणाय जो मुणि श्रागमं ण याणंतो । अप्पा पि विणासिय अण्णे वि पुणो विणासेई ॥ ९६५ ॥ आचार्यत्वमात्मानमुपनयति य आगममजानन् आत्मानं विनाश्य परमपि विनाशयति । आगमेन -
गाथार्थ - जैसे आम खोटे संसर्ग से नीमपने को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आचरण से हीन और धर्म में आलसी श्रमण का आश्रय न ॥६६३॥
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प्राचारवृत्ति- -आम का वृक्ष खोटी संगति से - नीम के संसर्ग से नीमपने को प्राप्त हो जाता है अर्थात् कटु स्वादवाला हो जाता है, उसी प्रकार जो श्रमण धर्म के अनुरागरूप संवेग में आलसी है, समीचीन से आचार से हीन है, खोटे आश्रय से संपन्न है उसका संसर्ग नहीं करो, क्योंकि आत्मा भी ऐसे के संसर्ग से ऐसा ही हो जाएगा ।
उसी प्रकार से पार्श्वस्थ मुनि से हमेशा ही डरना चाहिए, ऐसा दिखलाते हैं
गाथार्थ - दुर्जन के सदृश वचनवाले यद्वा तद्वा बोलनेवाले, नगर के नाले के कचरे को धारण करते हुए के समान मुनि से हमेशा डरना चाहिए ||६६४ ||
आचारवृत्ति - जो मुनि पूर्वापर का विचार न करके बोलनेवाले हैं, विशालनगर से निकले हुए वचनरूप कचरे को धारण करते हैं, दुर्जन के सदृश वचन बोलनेवाले हैं, उनसे हमेशा ही डरना चाहिए अर्थात् उनके समीप नहीं रहना चाहिए ।
तथा जो इस प्रकार के भी हैं उनसे भी डरना चाहिए, इसे ही दिखाते हैं—
गाथार्थ - जो मुनि आगम को न जानते हुए आचार्यपने को प्राप्त हो जाता है वह अपने को नष्ट करके पुनः अन्यों को भी नष्ट कर देता है । ६६५ ॥
आचारवृत्ति - जो मुनि आगम को न सझमकर आचार्य बन जाता है अर्थात आगम के
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