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[ मूलाचारे
एवं पिंडादिकं शोधयतः सुचरित्रं भवति, यः पुनर्न शोधयेत्तस्य फलमाह
पिडोवधिसेज्जायो अविसोधिय जो य भंजदे समणो ।
मूलढाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो ॥१८॥ पिंडमुपधि शय्यां चाहारोपकरणावासादिकमविशोध्य च शुद्धिमकृत्वा यो भुंक्त सेवते श्रमणः स मूलस्थानं प्राप्तो गृहस्थः संजातः भुवने लोकमध्ये चासो श्रामण्यतुच्छो यतित्वहीनो भवेदिति ॥१८॥ तथा
तस्स ण सुज्झइ चरियं तवसंजमणिच्चकालपरिहीणं ।
आवासयं ण सुज्झइ चिरपव्वइयो वि जइ होइ ॥६१६॥ पिंडादिशुद्धिमन्तरेण यस्तपः करोति तस्य न शुध्यति चारित्रं तपःसंयमाभ्यां नित्यकालं परिहीणो यत आवश्यकक्रिया न तस्य शुद्धा । यद्यपि चिरप्रवजितो भवति तथापि किं तस्य चारित्रादिकं भवति यदि पिंडादिशुद्धि न कुर्यादिति ॥१६॥ पूनरपिचारित्रस्य प्राधान्यमाह
मूलं छित्ता समणो जो' गिण्हादी य बाहिर जोगं ।
बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स किं करिस्संति ॥२०॥ इस प्रकार आहार, आदि की शुद्धि रखते हुए साधु सुचरित्रवान् होते हैं किन्तु जो शोधन नहीं करते हैं उन्हें मिलने वाले फल को बताते हैं
गाथार्थ-जो श्रमण आहार, उपकरण और वसतिका को बिना शोधन किये ही ग्रहण करते हैं वे मूलस्थान प्रायश्चित को प्राप्त होते हैं और संसार में मुनिपने से हीन होते हैं ॥६१८॥
प्राचारवृत्ति-जो मुनि आहार, उपकरण, वसतिका आदि को बिना शोधन किये अर्थात् उद्गम-उत्पादन आदि दोषों से रहित न करके सेवन करते हैं वे मूलस्थान को प्राप्त करते हैं अर्थात् गृहस्थ हो जाते हैं और लोक में यतिपने से हीन माने जाते हैं।
उसी को और बताते हैं
गाथार्थ-उनके तप और संयम से निरन्तर हीन चारित्र शुद्ध नहीं होता है इसलिए चिरकाल से दीक्षित हों तो भी उनके आवश्यक तक शुद्ध नहीं होते हैं ।। ६१६ ॥
आचारवत्ति-आहार आदि की शुद्धि के बिना जो तप करता है उसके चारित्र की शद्धि नहीं होती है। चूंकि वह हमेशा ही तप और संयम से हीन है अतः उसके आवश्यक क्रियाएँ भी शद्ध नहीं होतीं। चिरकाल से दीक्षित होने पर यदि पिण्ड आदि की भी शुद्धि न करे तो क्या उसके चारित्र आदि हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं।
पुनरपि चारित्र की प्रधानता को कहते हैं
गाथार्थ-जो श्रमण मूल का घात करके बाह्य योग को ग्रहण करता है उस मल गुणों से हीन के वे सभी बाह्य योग क्या करेंगे? ॥ ६२०॥
१. क. गेण्हदि य।
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