________________
inter धिकारः ]
[ १२
पचने वा पाचने' वाऽनुमननचित्तः कंडन्यान करणेाधः कर्मणि प्रवृत्तोऽनुमति कुशलश्च न च तस्मात्पचनादिकाद्विभेति भुंजानोऽपि स्वघाती नापि श्रमणो न च दृष्टिसंपन्नो विपरीताचरणादिति ॥३०॥
तथा
नैव तस्येह लोको नाऽपि परलोक उत्तमार्थाच्चारित्राद् भ्रष्टस्य, लिंगग्रहणं तु तस्य निरर्थकं संयमेन नस्येति ॥३१॥
तथा
पायच्छित्तं आलोयणं च काऊण गुरुसयासह्नि । तं चैव पुणो भुजदि आधाकम्मं असुहकम्मं ॥ १३२॥ जो जत्थ जहा लद्ध गेहदि आहारमुवधिमादीयं । समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होइ ॥ ९३३॥
पण पायण मणुमणणं सेवंतो ण वि संजदो होदि । जेमंतो वि य जह्मा ण वि समणो संजमो णत्थि ॥ ९३४ ॥
कश्चित्साधुः प्रायश्चित्तं दोषनिर्हरणं आलोचनं च दोषप्रकटनं च कृत्वा गुरुसकाशे गुरुसमीपे पुनरपि तदेव भुंक्तेऽधः कर्माशुभकर्म । यदर्थं प्रायश्चित्तादिकं कृतं तदेव भुंक्त यस्तस्यापि नेह लोको न
आचारवृत्ति - जो कूटन्य पीसना आदि क्रियाओं द्वारा अधः कर्म में प्रवृत्त होकर भोजन स्वयं बनाता है या बनवाता है अथवा अनुमति देता है, तथा भोजन पकाना आदि क्रियाओं से भयभीत नहीं होता है वह उस आहार को लेता हुआ आत्मघाती है। वह न तो श्रमण है और न सम्यक्त्व सहित ही है बल्कि विपरीत आचरण करनेवाला है । वह उत्तम चारित्र से भ्रष्ट है अतः उसके न इहलोक है और न परलोक ही है किन्तु संयम से च्युत हुए उस मुनि का निर्ग्रन्थ लिंग ग्रहण करना व्यर्थं ही है ।
उसी बात को और स्पष्ट करते हैं
गाथार्थ - जो गुरु के पास आलोचना और प्रायश्चित्त करके पुनः वही अशुभ क्रियारूप अधः कर्म युक्त आहार करता है उसका इहलोक और परलोक नहीं है ।
जो जहाँ जैसा भी मिला वहाँ वैसा ही आहार, उपकरण आदि ग्रहण कर लेता है वह मुनि के गुणों से रहित हुआ संसार को बढ़ाने वाला है ।
पकाना, पकवाना, और अनुमति देना - ऐसा करता हुआ वह संयत नहीं है । वैसा आहार लेता हुआ भी उस कारण से वह श्रमण नहीं है और न संयमी ही है ।। ३२, ३३
६३४ ॥
श्राचारवृत्ति - कोई साधु अपने दोषों को प्रकट करने रूप आलोचना को और दोषों को दूर करने रूप प्रायश्चित्त को भी गुरु के पास में ग्रहण करके पुनः यदि उस अधः कर्म रूप
१. क० पचने पाचने वा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org