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[ मूलाचारे कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी।
बीहेदव्वं णिच्चं ताहि जीवरासी से मरदि ॥२८॥ यवादयः कंड्यंतेऽनया कंडनी उदुखलः, पिष्यते यवादयोऽनया पेषणी यंत्रक, चुल्ली अग्न्यधिकरणं, उदकुंभः वृहलिजरादिकं, प्रमाय॑तेऽनया प्रमाजिनी अपस्करनिराकरिणी। एताभ्यो भेतव्यं नित्यं जीवराशिर्यतस्ताभ्यो म्रियते ॥२८॥ पुनरपि विशेषतोऽधःकर्मणि दोषमाह
जो भुजदि आधाकम्म छज्जीवाणं घायणं किच्चा।
अबुहो लोल सजिब्भो ण वि समणो सावओ होज्ज ॥२६॥ यो भुक्तऽधःकर्म षड्जीवानां घातनं कृत्वा अबुधोऽसौ लोलो लंपटः सजिह्वो जिह्वावशं गतः नापि श्रमणः किं तु श्रावकः स्यात् । अथवा न श्रमणो नापि श्रावक: स्यात् उभयधर्मरहितत्वादिति ॥२६॥ तथा
पयणं व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि । जेमतो वि सघादी ण वि समणो दिद्विसंपण्णो ॥६३०॥ ण हु तस्स इमो लोओ ण वि परलोओ उत्तमट्ठभट्टस्स।
लिंगग्गहणं तस्स दुणिरत्थयं संजमेण होणस्स ॥३१॥ गाथार्थ -वंडनी, चक्की, चूल्हा, पानी भरना, और बुहारी ये पाँच सूना हैं । हमेशा ही इनसे डरना चाहिए क्योंकि इनसे जीवसमूह मरते हैं ।।६२८॥
आचारवृत्ति-जिससे जौ आदि कूटे जाते हैं वह खंडनो अर्थात मूसल है। जिससे जौ आदि पीसे जाते हैं वह पेषणी अर्थात चक्की कही जाती है, जो अग्नि का आधार है वह चूल्हा कहा जाता है। जिसमें पानी रखते हैं ऐसे मटके, कलश आदि उदकुम्भ कहलाते हैं और जिसके द्वारा बुहारा जाता है वह कचरे को दूर करने वाली प्रमार्जनी-बुहारी कहलाती है। इनसे हमेशा जीवसमूह का घात होता है अतः इनसे बचना चाहिए।
पुनरपि विशेष रीति से अधःकर्म के दोष बताते हैं
गाथार्थ-जो षट्काय के जीवों का घात करके अधःकर्म से बना आहार लेता है वह अज्ञानी लोभी जिह्वन्द्रिय का वशीभूत श्रमण नहीं रह जाता, वह तो श्रावक हो जाता है ॥६२६।।
प्राचारवत्ति-जो छह जीव निकायों का घात करके अधःकर्म से बने हुए आहार को लेता है वह अज्ञानी लंपट जिह्वा के वशीभूत है । वह श्रमण नहीं रहता है बल्कि श्रावक हो जाता है । अथवा, वह न श्रमण है न ही श्रावक है, वह उभय के धर्म से रहित होता है।
और भी बताते हैं
गाथार्थ --जो पकाने या पकवाने में अथवा अनुमोदना में अपने मन को लगाता है उनसे डरता नहीं है वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, सम्यक्त्व सहित श्रमण नहीं है । उस उत्तमार्थ से भ्रष्ट के यह लोक भी नहीं है और परलोक भी नहीं है। संयम से हीन उस का मुनि वेष ग्रहण करना व्यर्थ है ।। ६३०-६३१ ।।
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