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[ मूलाचार वन्तः, दान्ताः पंचेन्द्रियाणां निग्रहपराः, त्रयोदशविधे चारित्रे यतन्त इति यतयोऽथवोपशमक्षपकण्यारोहणपरा यतयः । एवं प्रकाराणि यतीनां नामानीति ॥८८८॥ एवं दशसूत्राणि व्याख्यायेदानीमनगाराणां स्तवमाह
प्रणयारा भयवंता अपरिमिदगुणा थुदा सुरिंदेहि।
तिविहेणुत्तिण्णपारे परमगदिगदे पणिवदामि ॥८८६॥ एवमनगारान् भगवतोऽनन्तचतुष्टयं प्राप्तान प्राप्तवतश्चापरिमितगुणान् सर्वगुणाधारान् सुरेन्द्रः स्तुतान् परमगतिगतान परमशुद्धज्ञानदर्शनचारित्रपरिणतानुत्तीर्णपरान् संसारमहोदधि समुल्लध्य स्थितास्त्रिप्रकारैर्मनोवचनकायैरहं प्रणिपतामि सम्यक् प्रणमामीति ॥८८६।। अनगारभावनायाः' प्रयोजनमाह
एवं चरियविहाणं जो काहदि संजदो ववसिदप्पा।
णाणगुणसंपजुत्तो सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥८६०॥ एवमनेन प्रकरेण चर्याविधानं दशसूत्रः कथितं यः करोति व्रतादिसंपन्नो व्यवसितात्मा तपस्युद्योगपरो ज्ञानेन मूलगुणश्व संप्रयुक्तः संयतो गच्छत्युत्तमं स्थानमिति ॥८६०॥
जिनके नाम क्रम से लिंगशुद्धि; व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झनशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि हैं। यहाँ पर इन्हें दश अनगार भावना सूत्र कहा है सो अन्तिम ध्यानशुद्धि सूत्र का व्याख्यान करके आगे इन अनगारों की स्तुति कर
इस प्रकार दश सूत्रों का व्याख्यान करके अब अनगारों का स्तवन करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-भगवान अनगार सुरेन्द्रों के द्वारा स्तुति को प्राप्त हैं, अपरिमित गुणों से सहित हैं, तीर को प्राप्त हो चुके हैं और परमगति को प्राप्त हैं। ऐसे मुनियों को मन-वचनकायपूर्वक मैं प्रणाम करता हूँ ॥८६॥
आचारवत्ति-जो अनगार अनन्त चतुष्टय को प्राप्त होने से भगवान हैं, सर्वगुणों के आधार हैं, देवेन्द्रों से स्तुत हैं, परमशुद्ध ज्ञान दर्शन और चारित्र से परिणत होने से परमगति को प्राप्त हो चुके हैं, संसार समुद्र को पार करके स्थित हैं उनको मैं अच्छी तरह से मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करता हूँ :
अनगार भावना का प्रयोजन कहते हैं
गाथार्थ-इस प्रकार से जो उद्यमशील संयत मुनि इस प्रकार की चर्याविधान को करता है वह ज्ञानगुण से संयुक्त हुआ उत्तम स्थान को प्राप्त कर लेता है ॥८६॥
प्राचारवत्ति-जो व्रतादि से सम्पन्न, तप में उद्यमशील, ज्ञान से एवं मूलगुणों से संयुक्त हुआ मुनि दशसूत्रों के द्वारा कथित इस चर्याविधान को करता है वह उत्तम स्थान को प्राप्त कर लेता है।
१. २००० अनगारभावनायां ।
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