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[मूलाचारे
प्रेरिताः संत उन्मार्गं विषयाकुलाटवीं नयन्ति प्रापयन्ति धर्मध्यानरथं, कुरुत मनः प्रग्रहं दृढम् । यथा रश्मिनाश्वा नियन्त्र्यन्ते वशीक्रियन्ते तथेन्द्रियाणि वशं स्थापयतैकाग्रमनोनिरोधप्रग्रहेण येन ध्यानं मार्गस्थ भवतीति ॥५८१॥
रागद्वेषादीनां प्रतिपक्षभावनामाह
रागो दोसो मोहो विदीय धीरेहि णिज्जदा सम्मं । पंचेंदिया य दंता वदोववासप्पहारेहि ॥ ८८२॥
धीरः संयते रागद्वेषमोहाः प्रीत्यप्रीतिमिथ्यात्वानि वृत्त्या दृढरत्नत्रयभावनया निर्जिताः प्रहताः सम्यग्विधानेन पंचेन्द्रियाणि दान्तानि स्ववशं नीतानि व्रतोपवासप्रहारैरिति ॥
ततः किम्
दंतेंदिया महरिसी रागं दोसं च ते खवेदूणं । भाणोवजोगजुत्ता खवेंति कम्मं खविदमोहा ॥ ८८३ ॥
ततो दान्तेन्द्रियाः संतो महर्षयः शुद्धोपयोगयुक्ताः समीचीनध्यानोपगता रागं द्वेषं विकृति च क्षपयित्वा प्रलयं नीत्वा क्षपितमोहाः संतः कर्माणि क्षपयन्ति सर्वाणि यतः कषायमूलत्वात्सर्वेषामिति ॥ ८८३|| तदेवमाचष्टेऽनया गाथया --
इसलिए हे मुने ! तुम इन घोड़ों को सन्मार्ग में ले जाने के लिए मनरूपी लगाम को दृढ़ता से थामे रहो । अर्थात् जैसे रज्जु - लगाम से घोड़े वश में किए जाते हैं उसी तरह तुम एकाग्र मन के रोकने रूप रज्जु के द्वारा इन्द्रियों को वश में करो जिससे कि यह ध्यानरूपी रथ मोक्षमार्ग में स्थित बना रहे।
राग-द्वेषों की प्रतिपक्ष भावना को कहते हैं-
गाथार्थ - धीर साधुओं ने राग-द्वेष और मोह को चारित्र से अच्छी तरह जीत लिया है और पाँचों इन्द्रियों का व्रत उपवासरूपी प्रहार से दमन किया है | ८८२ ॥
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आचारवृत्ति - धीर संयमी मुनियों ने राग -- प्रीति, द्वेष - अप्रीति और मोहमिथ्यात्व इन तीनों को दृढ़ रत्नत्रय की भावना से अच्छी तरह नष्ट कर दिया है, और पाँचों इन्द्रियों को व्रत-उपवासरूपी प्रहारों से अपने वश में कर लिया है ।
इससे क्या होगा ?
गाथार्थ - इन्द्रियों के विजेता वे महर्षि राग-द्वेष का क्षपण करके और ध्यान में उपयोग लगाते हुए मोह का नाश करके कर्मों का क्षय कर देते हैं ॥ ८८३॥
श्राचारवृत्ति - पुनः इन्द्रिय-विजयी होते हुए वे महर्षि शुद्धोपयोग से सहित अर्थात् समीचीन ध्यान को करनेवाले होते हुए राग-द्वेष रूप विकृति का क्षय करके क्षीणमोह होकर कर्मों का क्षय कर देते हैं, क्योंकि सभी कर्मों के लिए कषाय ही मूल कारण है ।
उसी बात को इस गाथा द्वारा कहते हैं
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